दर्द का धागा
ज़ख्म भर चुके थे, धीरे-धीरे,मिटती जा रही थी यादों की भीड़।
एक धागा छेड़ा, और फिर,
खुल गया ज़ख्मों का सारा दरीचा।
दर्द की तुरपाइयों की नज़ाकत तो देखिए,
हल्का सा स्पर्श, और ज़ख्म फिर से ताज़ा।
कैसे छुपाया था मैंने इसे इतने बरसों,
एक पल में बिखर गई सारी आशा।
क्यों छेड़ा मैंने उस धागे को,
जो दफन था मेरे अतीत में।
क्यों खोला फिर से वो दरवाज़ा,
जिसको मैंने बंद किया था बहुत पहले।
शायद दर्द को सहना ही सीखना होगा,
भूलकर वो सब जो बीत गया।
शायद यही है जीवन का सफर,
जहाँ ज़ख्म भरते हैं, और फिर खुल जाते हैं।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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