हिन्दी हूॅं मैं हिन्द का

हिन्दी हूॅं मैं हिन्द का

गर्व है मुझे हिन्द पर ।
किंतु सोया भारत ऐसे ,
चकित हूॅं इस नींद पर ।।
हर राष्ट्र में सम्मान बढ़ा ,
निज गृह मेरा मान नहीं ।
स्व गृह हुए अपमानित ,
क्या तुझे मेरा भान नहीं ।।
कब जगोगे ये बता दो ,
स्व बुराई देता कान नहीं ।
सुनकर अनसुना करना ,
क्या मुझमें है प्राण नहीं ।।
सुनते सुनते थक जाता ,
सुन जैसे मर जाता हूॅं ।
मेरे घर में मेरी ही बुराई ,
शर्म से जैसे गर जाता हूॅं ।।
हिन्द रह भाषा न हिन्दी ,
हिन्दू लानत है तुझपर ।
मातृभूमि पे जन्म लेकर ,
जैसे थूक रहे मुझ पर ।।
तुम हो बेटे मैं माॅं हूॅं तेरी ,
मुझे भूल न अधर्म कर ।
मुझसे तेरा मान बढ़ा है ,
कुछ तो तू भी धर्म कर ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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