कलम की चीखें

कलम की चीखें

हो गई आज कलम भी व्यथित ,
निकल रही हैं कलम की चीखें ।
रो रही आज हैं पीड़ित ये नारी ,
भेड़िए रूपी नर भ्रष्ट ही दिखें ।।
भ्रष्ट सारे नेता और अभिनेता ,
भ्रष्ट सारे नीचे ऊॅंचे अधिकारी ।
भ्रष्ट सारे हुए शासक प्रशासक ,
जिन्हें मिथ्या वादे रिश्वत प्यारी ।।
जनता शोषण औ नारी शोषण ,
कलमें पड़तीं जिनपर हैं भारी ‌।
पुरुष जन्म हो रहा है कलंकित ,
पुरुष बने आज स्वयं महामारी ।।
चीख रही आज व्यथित कलमें ,
नारी भी चीखते चीखते हैं हारी ।
काश उन्हें भी तू नारी ही बना दे ,
बने पड़े आज जो भी द्विधारी ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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