विगत के अनुभव सारे कचरे के ढेर हुए
डॉ रामकृष्ण मिश्र
आशाएँ हो रही अचेत।। किस- किस को वारे अनकहे से समाजी हैं
मनमानी चाल में सचेत।।
कौन समझना चाहे कागज की नाव बना
कितनी है तीव्र नदी धार
गहराई मापना कहाँ तक होगा रुचिकर
तैरकर भले हों,उस पार।
अंधे का चिल्लाना पर्वत के पैरों में
कैसा है अनशुभ कुनेत। ।
आग -आग का हल्ला धुआँ -धुआँ शोर हुआ
आसमान चीखता रहा
वेणू वन सूख रहे वंशी हो गयी मूक
गोकुल बस खीझता रहा।
आकुलता गहने बन गयी आम जीवन की
यह कैसा अद्भुत संकेत।।
पल- पल ओझल होते दृश्य नये उग आते
बढ़ जाती अनचीन्ही सोच
अन्तरिक्ष काँप उठेगा मानो सन्नाटा
पसरा है नहीं कहीं लोच।
फिर भी हम जगेंं चलें एक साथ मिल जुल कर
दें सार्थक स्वर अब समवेत।। **********
रामकृष्ण
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