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अथ श्री साढ़ु माहात्म्यम्

अथ श्री साढ़ु माहात्म्यम्

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
तुलसीबाबा ने बहुत पहले ही दुनिया को अगाह कर दिया है—ससुरारि पिआरि लगी जब तें, रिपु रूप कुटुंब भए तब तें।
साढ़ु का रिश्ता उसी ससुराली वृक्ष की एक महत्वपूर्ण शाखा है, जिसपर साली विशेषण वाली रंगीन चिड़िया चहकती रहती है या यूँ कहें कि साढ़ुनामक कोटर ही साली नाम की चिड़िया का घोसला हुआ करता है। चुँकि साली का वो प्यारा घोसला है, इसलिए झक्कमारके साढ़ुआना भी प्यारा हो ही जाता है।
और जब इतनी बात साफ हो गयी तो लगे हाथ आज ये भेद भी खोल ही दूँ कि भोंचूशास्त्री और जगेसरशास्त्री के बीच कलियुगिया सबसे घना रिश्ता—सढ़ुआना का रिस्ता है।
श्रृंगाररसानुरागियों का मानना है कि संसार में सबसे मधुर रिश्ता साली का होता है—इसे तो आप भी मानेंगे ही। अतः साली के बावत मुझे अपनी ओर से कुछखास कहने-बताने की जरुरत नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि संसार का सबसे अभागा आदमी वो है, जिसके ससुराल में साली न हो। साली के विषय में विभिन्न रसिक बिहारी कवियों ने भी बहुत कुछ कहा है, किन्तु उनकी बातों में अभी जाना नहीं है। किसी मनचले टाइप काबिल ने तो यहाँ तक कह डाला है कि अपनी बेटी और दूसरे की बीबी सबको सुन्दर लगती है। इस सिद्धान्त के अनुसार भी साढ़ु की बीबी यानी साली तो सुन्दर लगेगी ही न ! सुबह-सुबह चाय की प्याली का जितना महत्व है, उससे कहीं ज्यादा ससुराल में साली का महत्व है—इस सिद्धान्त को भी बहुतायत से समर्थन मिलता रहा है। किसी भुक्तभोगी, अनुभवी ने तो यहाँ तक कह डाला है कि भले ही आजीवन कुँआरा रह जाना पड़े, किन्तु जिस घर में पहले से ही जीजा मौजूद हो, उस घर को ससुराल बनाओ ही नहीं, अन्यथा जीवनभर पछताओगे। यानी साली हो जो किसी की, उसपर भरोसा बिलकुल न करो। हो सकता है कि उन महानुभाव को विशेष कटु अनुभव हुआ हो साली के बावत, किन्तु इतने भर से, साली जैसे प्यारे-पावन रिश्ते को, इस कदर बदनाम करना भी सामाजिक या कहें नैतिक अपराध जैसा है। पके रसीले बेर गुच्छों में हों और बच्चे ढेला न फेंकें—ऐसा कैसे समभ्व है !
संयोग से भोंचूशास्त्री का जिस घर में व्याह हुआ था, उस संयुक्त परिवार में दर्जनभर बेटियाँ थी। विकट साढ़ुओं के समूह में बेचारे भोंचूशास्त्री का स्थान सबसे नीचे वाला था और इनसे ठीक ऊपर जगेसरशास्त्री का । आप यदि जरा भी समझदार हैं तो खुद ही समझ सकते हैं कि बेचारे भोंचूशास्त्री की कितनी दयनीय स्थिति रही होगी। पता नहीं इनके पूर्व जन्म के किस गलती की ऐसी सजा दी थी विधाता ने कि इन्हें साली विहीन कर दिया। इनकी बीबी पर सबकी नजर और इनकी नजरों में कोई मृगनैनी नहीं—आए दिन बेचारे कोसते रहते विधाता को, जैसे अन्धे धृतराष्ट्र हमेशा कोसा करते थे अपनी महत्वाकांक्षाओं की अन्धेरी गलियों में भटकते हुए ।
किन्तु एक मामले में विधाता ने भोंचूशास्त्री को नायाब बक्सीश दिया था—तीन-तीन सुन्दर-सुन्दर रसीली भाभियाँ थी भोंचूशास्त्री की। किन्तु इन्हें साली के अभाव का मलाल सदा रहता ही था, क्योंकि भाभी कभी साली वाला सुकून तो दे नहीं सकती न ! क्योंकि इनके ही शब्दों में— भाभी मर्यादाओं में बंधी पोथी है तो साली रसिकरंजन का श्रृंगारिक उपन्यास । पोथी को कायदे से काठ के रेहल पर रखकर बाँचना होता है, तो उपन्यास को चाय की प्याली शिप करते हुए भी पढ़ा जा सकता है।
जगेसरशास्त्री क्रीम-पाउडर, परफ्यूम, लालगुलाब, रोमांटिक उपन्यास आदि तरह-तरह के प्रयोग कर चुके थे साली को रिझाने के लिए। और अन्त में किंचित् कुत्सित ढंग से भी उस अमानत को हथियाने का प्रयास भी किया , जिसे विधाता ने भोंचूशास्त्री के लिए बना रखा था। किन्तु हर सम्भव प्रयास के बावजूद जब विफलता हाथ लगी, तब एक पोख्ता रास्ता अख्तियार किए।
भोंचूशास्त्री और जगेसरशास्त्री के पुराने कौटुम्बिक सम्बन्ध की सुदृढ़ आधारशिला पर नए यानी सढ़ुआने सम्बन्ध की नींव रखी गई । नींव यदि पोख्ता हो तो महल की मजबूती सुनिश्चित है। भोंचूशास्त्री की खानदानी प्रतिष्ठा, वैभव और गुणों का बढ़ा-चढ़ा बखान कर, बिना किसी मीन-मेष के आनन-फानन में वैवाहिक-सम्बन्ध सम्पन्न हो गया और यहीं से जगेसरशास्त्री की कुटिल दूरगामी दुर्नीति का सूत्रपात भी हो गया।
ऐन विदाई के वक्त जगेसरशास्त्री साली की डोली में गर्दन घुसाकर कान में फुसफुसाए— “ मेरी प्यारी बुलबुल ! चहकती हुई जा तो रही हो नये घोसले में, किन्तु इस पुराने घोसले की याद बहुत सतायेगी और हाँ, जरा सम्भल के रहना—भोंचूआ की तीन-तीन भाभियाँ हैं...यानी पहले से ही....बाकी तो तुम खुद ही समझदार हो...तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता है...। ”
ख्वाबों के हवामहल में रेशमी डोले में पेंगे लेती दुल्हन को जोरदार झटका लगा—वार्णावत यात्रा के समय जैसे विदुरजी ने पाण्डवों से कहा था—पलाश फूलने का मौसस है...जंगल की आग से कौन बचता है...।
‘ तो क्या किसी लाक्षागृह में जा रही है...?’
और इस सांकेतिक गुरुदीक्षा का बहुत ही गहरा असर हुआ था बेचारी पर। गृहप्रवेश से पहले ही दाम्पत्य-प्रासाद में प्रचण्ड ज्वालाएँ उठने लगी थी। हर चीज को शक की नजरों से देखना, हर व्यक्ति संदेह के घेरे में, हर बात में कान खड़े...।
इन बातों से अनजान भोंचूशास्त्री समझ न पा रहे थे कि नवोढ़ा पत्नी के व्यवहार और भावभंगिमाएँ इस कदर बेढंगी क्यों है, या इसे कोई शारीरिक या मानसिक बीमारी है...। उन्हें भला क्या पता कि चौसर के मंजे हुए खिलाड़ी ने उनके साथ दाव खेला है ।
दुल्हन की सप्ताह भर की पहली सुसुराल यात्रा यूँ ही निकल गई भय-आतंक-भ्रम-आशंका-शक-सुभा में ही । न ठीक से खा-पी सकी, न चैन की नींद सो सकी। रस्सी मौजूद हो यदि तो साँप का भ्रम तो होगा ही न अन्धेरे में । मन में भ्रम और अविश्वास का धुंधलका हो तो कुछ भी दिखाई-सुनाई पड़ सकता है । जीजाजी के शब्द-संकेतों का जीता-जागता प्रमाण—तीन-तीन सुन्दर भाभियाँ तो है ही न घर में और देवर को भला ये क्या पता कि अब उसे भाभियों से सम्भल कर बर्ताव करना है। सहज ढंग से पूर्ववत सबके समक्ष, देवर-भाभी का प्रेमालाप चलता रहता और इधर सशंकित नवोढ़ा कुढ़ती-कलपती रहती अपने भाग्य पर।
सप्ताह भर बाद मैके वापस आयी। सदा कूकती-चहकती रहने वाली कोयल गूँगी सी हो गई । यहाँ तक कि महीना-डेढ़ महीना बीतते-बीतते चिन्तातुर, खाट पकड़ ली । मन का झटका, तन के झटके से कहीं ज्यादा जोरदार होता है। शरीर की व्याधि से मन की आधि कहीं ज्यादा जटिल होती है।
थोड़े ही दिनों बाद उस बेचारी को बेहोशी के दौरे पड़ने लगे। और तब, दुष्ट-कुटिल जीजा ने नया सगूफा छोड़ा—ऐसी बेहोशी को डाक्टरी भाषा में योषापस्मार (हिस्टीरिया) कहते हैं। जवानी की ये बड़ी खतरनाक बीमारी है। और ये बीमारी उसी लड़की को होती है, जिसे पति सन्तुष्ट नहीं कर पाता...।
प्रार्थना की पवित्र ध्वनि तरंगे कहीं पहुँचने में भले ही देर कर दे, किन्तु लांछनाओं और कुत्सित विचारों की तरंगे चहुँओर बहुत जल्दी ही गूँज जाती है। सगे-सम्बन्धियों के कानों तक भी ये बातें जायकेदार होकर पहुँचते देर न लगी। सुनकर भोंचू का माथा ठनका ।
वक्त गुजरता गया अपने रफ्तार से ।
शादी के समय भोंचू की उमर बहुत कम थी। ग्रैजुयेशन भी पूरा नहीं हुआ था। विवाह के बाद मानसिक तनाव में रहने के कारण पढ़ाई-लिखाई बहुत बाधित हुई। परीक्षा के परिणाम भी अच्छे नहीं मिले । पत्नी का स्वास्थ्य और बेरोजगारी का दंश जीवन को अस्त-व्यस्त करके रख दिया ।
सुअवसर जान, कुटिल शकुनी के कलिअवतार जीजा ने एक नया मोहरा सरकाया।
जगेसरशास्त्री स्वयं सुयोग्य थे, किन्तु इनकी योग्यता का ज्यादा उपयोग पाशे फेंकने में ही हुआ करता था। योग्य होते हुए भी अपने लिए अच्छी कुर्सी नहीं अख्तियार कर पाए थे। संयोगवश इसी बीच एक निजी महाविद्यालय में अवसर मिल गया प्राचार्य बनने का ।
अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए प्यारी साली पर भी कृपा बरसाने के ख्याल से भोंचू को भी अपने ही महाविद्यालय में एक छोटी सी सेवा का अवसर दिला दिया। दोनों साढुओं को एक ही आवास में सपरिवार रहने की व्यवस्था भी हो गई कॉलेज-सचिव की ओर से।
भोंचू की बहाली तो आधिकारिक योग्यता के हिसाब से किरानी में हुई, किन्तु सरस्वती के वरदहस्त भोंचू को सचिव की कृपा से हमेशा व्याख्याता का ही कार्य करना पड़ता। विद्यार्थी भी भोंचू की सराहना करते नहीं अघाते ।
सहकर्मी-सहवासी साढ़ुभाई— जगेसरशास्त्री को ये बातें फूटी आँखें नहीं सुहाती। नतीजन चौसर की विसात पर नये-नये दाव चले जाने लगे ।
छोटी बहन के नाते भोजन बनाने का जिम्मा जगेसर की साली यानी भोंचू की पत्नी को ही था। पुराने वाले रिश्ते से दोनों गोतनी भी तो थी।
मौका पाकर जगेसर कभी बनी दाल-सब्जी में ऊपर से कच्चा तेल उढ़ेल देते, कभी नमक-मिर्च, तो कभी बालू-कंकड़। भोजन की पंक्ति में रोज दिन टुन-टान होता। नतीजन, पति-पत्नी के बीच बाद-विवाद भी गहराने लगा।
महाविद्यालय में भोंचू का सिक्का जमता देख, जगेसर ने ठान लिया कि किसी तरह इस कॉलेज को ध्वस्त कर देना है, भले ही अपनी प्राचार्जी चली जाए, भोंचुआ की किरानी वाली कुर्सी भी तो खतम ही हो जायेगी न ! ढपोरशंख वाली पुरानी उक्ति फिर चरितार्थ हो गई—हम काने हों तो हों, कोई बात नहीं, पड़ोसी तो अन्धा हो ही जायेगा न इस जादुई शंख के बदौलत। थोड़े ही दिनों बाद कॉलेज बन्द हो गया मान्यता नहीं मिलने दी प्राचार्य जगेसरशास्त्री ने। किन्तु इतने पर भी जगेसर को सन्तोष न हुआ। साली पर डोरे डालने की बारबार की विफलता उन्हें और-और कुटिल बनाता गया।
इसी बीच संयोग से एकबार जगेसरशास्त्री बहुत बीमार हुए। भोंचूशास्त्री ने पन्द्रह दिनों तक रात-दिन एक कर उनकी हर सम्भव सेवा की। ऐसे अवसर पर प्रसन्नचित जगेसर की कुटिल बुद्धि ने सार्वजनिक घोषणापूर्वक प्रतिज्ञा की— भगवान ! मुझे भी कुछ ऐसा अवसर देना, ताकि भोंचुआ के इस सेवा-ऋण से उद्धार हो सकूँ।
कॉलेज उजड़ने के बाद, जगेसरशास्त्री ने खुद तो उसी शहर में छोटी सी दुकान खोल कर गुजारा करने लगे, किन्तु बेचारे भोंचू को बैरंग गांव वापस आना पड़ा। जगेसर के सौजन्य से ये खबर पहले ही भोंचू के परिवार में पहुँच चुकी थी कि इसीकी लापरवाही और घोटालेबाजी के कारण कॉलेज ध्वस्त हुआ है। लाख सफाई के बावजूद भोंचूशास्त्री समाज और परिवार की नजरों में स्वयं को निर्दोष साबित न कर सके। लम्बे समय तक कानूनी पचड़े में पड़े रहे। जेल-जुर्माना सब भोगे।
किन्तु हाँ, भोंचू के दुर्दिनकाल में एक बात जरुर देखी गई—केस-मुकदमे में मुदई के वकील को जगेसर ने भरपूर मदद की और साथ ही सींकचों में पड़े भोंचू को घर का बना-बनाया सुस्वादु व्यंजन भी चखाया।
साली पर अनोखा अहसान जताने वाले, बारबार डोरे डालने में विफल जगेसर जैसे साढ़ु यदि दुनिया में सबको नसीब हो जाएं तो फिर क्या कहना ! हालाँकि साढ़ु माहात्म्य बहुत विस्तार वाला है, किन्तु विद्वानों ने कहा है कि गूढ़ बातें संक्षेप में ही कहनी चाहिए, ताकि उसका रहस्य बना रहे। अतः ।। इति साढ़ु माहात्यम् ।।
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