सविधि हरितालिका-व्रतकथा

सविधि हरितालिका-व्रतकथा

मार्कण्डेय शारदेय
भादो के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जानेवाला सुहागिनों का महापर्व तीज को हरितालिका भी कहते हैं।इसबार यह 06.09.2024 (शुक्रवार) को है।इस दिन स्त्रियाँ सौभाग्य-वृद्धि के लिए शिव-पार्वती की पूजा करती हैं और कठोर निर्जल उपवास के साथ रात्रि-जागरण भी करती हैं।यह व्रत सर्वप्रथम पार्वती ने शिव को पाने के लिए किया था।
पूजाविधि :
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प्रातः स्नान आदि कर यथाशक्ति उपवास के साथ भक्तिपूर्ण पूजन-सामग्री का संग्रह कर लें। यथासमय पूजा के पहले मण्डप को सजाकर कलश में रोली, अक्षत, पुष्प, दूब, पान, सुपारी, आम का पल्लव डालकर उसके ऊपर चावल से भरा पात्र रखें।इसके बाद कपड़ा या मौली लपेटकर नारियल रखें।उसके आगे सुपारी में मौली लपेटकर अग्रपूज्य गणेश बनाकर हल्दी-रोली से बने स्वस्ति पर रखें।मण्डप के दाईं ओर घी का अखण्ड दीप रखें।जलपात्र के साथ सारी पूजा-सामग्री पास रख आसन पर बैठ जाएँ।
यह सुहागिनों के लिए ही विशेष व्रतोपवास है।इसलिए यथासाध्य अपना सिंगार करके ही बैठें। परन्तु; केश खुला न रखें।आसन पर बैठकर शुद्धि के लिए अपने तथा आसन पर जल छींट लें। दीप जलाकर उसके पास रोली, अक्षत, पुष्प चढ़ाकर ‘ऊँ दीपाय नमः’ कहकर प्रणाम कर लें।
अब हाथ में रोली, अक्षत, पुष्प, सुपारी, सिक्का और जल लेकर संकल्प करें— ‘ऊँ विष्णुः विष्णुः विष्णुः नमः परमात्मने अद्य मासानाम् उत्तमे भाद्रपद- मासे शुक्ले पक्षे तृतीयायां तिथौ शुक्रवारे ...गोत्रे उत्पन्नाहं ....नाम्नी अहं सर्वपापक्षय- पूर्वक- सप्तजन्म- अतिसौभाग्य- अवैधव्य- पुत्र-पौत्रादि- वृद्धि- सकलभोगान्तर- शिवलोक- महित्व- कामनया हरितालिका- व्रत-निमित्तं यथाशक्ति जागरण- पूर्वक- उमामहेश्वर- पूजनं करिष्ये’।
उक्त संकल्प-वाक्य बोलकर संकल्प-सामग्री आगे रख दें।अब ‘श्रीगणेशाय नमः’ इस नाममन्त्र से गणेशजी पर जल, रोली, अक्षत, सिन्दूर, फूल चढ़ाकर धूप, दीप दिखाएँ तथा हाथ धोकर प्रसाद चढ़ाएँ।फिर जल देकर प्रणाम कर लें।इसी तरह ‘ऊँ वरुणाय नमः’ इस नाममन्त्र से गणेशजी के समान ही कलश का पूजन कर प्रणाम करें।
अब शिवपार्वती का ध्यान करते बोलें-
‘मन्दार- मालाकुलितालकायै कपालमालांकित- शेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय’।।
अब मण्डप में रखी गई बालू, मिट्टी, धातुमयी व चित्रमयी जो सम्भव हो, उस प्रतिमा की पूजा ‘ऊँ साम्ब-सदाशिवाय नमः’ इस नाममन्त्र से करें।भगवती को सुहाग- सामग्री भी अर्पित करें।फिर; प्रार्थना करें-
‘शिवायै शिवरूपिण्यै मंगलायै महेश्वरि!
शिवे! सर्वार्थदे! देवि! शिवरूपे! नमोsस्तु ते।।
शिवरूपे! नमस्तुभ्यं शिवायै सततं नमः।
नमस्ते ब्रह्मरूपिण्यै जगद्धात्र्यै नमोनमः।।
संसार- भय- संत्रस्ता त्राहि मां सिंहवाहिनि!
येन कामेन भो देवि पूजितासि महेश्वरि!!
राज्य- सौभाग्यं मे देहि प्रसन्ना भव पार्वति!!
हरितालिका- व्रतकथा :
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एक बार कैलास के शिखर पर पार्वती और महेश्वर विहार कर रहे थे।तभी गिरिनन्दिनी पार्वती ने भगवान कहा; ‘प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न हों तो कोई ऐसा व्रत बताएँ, जो कम परिश्रम से भी अधिक फल देनेवाला हो।वह गोपनीय से गोपनीय हो तो भी मुझपर कृपा कर अवश्य बताएँ। पुनः यह भी बताएँ कि मेरे किस आचरण से आप-जैसे संसार के स्वामी ने मुझे अपनी पत्नी का स्थान दिया’।
तब शिव ने कहा; देवि! सुनिए; आप मेरी प्रेयसी हैं, इसलिए मैं आपको सर्वोत्तम व्रत बता रहा हूँ, जिसके अनुष्ठान करने से ही सारे पाप दूर हो जाते हैं।उसका नाम ‘हरितालिका’ है।आपने इसी के आचरण से मुझे पतिरूप में पाया है।यों तो आपने बचपन से ही मेरे प्रति प्रेम-भक्ति के कारण तप करना शुरू कर दिया था।आप पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं, जहाँ की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है।वहाँ देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण भी विचरण करते हैं।वैसे रमणीक स्थान में आपने बारह वर्षों तक धूमपान कर, चौंसठ वर्षों तक सूख पत्ते खाकर, माघ की ठंड में जल में रहकर, सावन में खुले में रहकर तथा अन्न-जल का त्याग कर तपस्या की थी।आपका घोर तप देख पिता गिरिराज को चिन्ता खाई जा रही थी कि मैं इसका विवाह किससे करूँ! तभी देवर्षि नारद पधारे।पर्वतराज ने आतिथ्य-सत्कार कर आने का कारण पूछा।तब उन्होंने कहा कि मैं भगवान विष्णु द्वारा प्रेषित हूँ।वस्तुतः उनसे बढ़कर ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि देवताओं में भी कोई नहीं है।उन्होंने स्वयं आपकी कन्या की याचना की है।मेरा भी मत है कि श्रीहरि और गिरिनन्दिनी की जोड़ी अच्छी होगी, इसलिए आप विवाह की स्वीकृति दे दें।
तब गिरिराज ने कहा कि यदि श्रीविष्णु की यही इच्छा और अपकी सहमति है तो मैं अवश्य ऐसा करूँगा।नारदजी वाग्दान होते वैकुण्ठ गए और श्रीहरि से पर्वतराज का संकल्प बता दिया। इधर पर्वतराज पुत्री से जाकर बोले कि मैंने तेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया है।यह सुन आप बहुत दुःखी हुईं।आप रोती-बिलखती अपनी सखी के पास पहुँचीं।उसने कारण पूछा तो आपने बताया कि मैंने स्वयं को भगवान शंकर को समर्पित कर दिया है।ऐसे में मैं जान दे दूँगी।
सखी एक योजना बनाकर आपको एक दुर्गम स्थान में ले गई।आपको घर और पास-पड़ोस में न पाकर दुःखी पिता छान मारने लगे, पर पता नहीं चला।और इधर आपने नदी-किनारे गुफा में रहकर उपवासपूर्वक रात्रि में बालू की पार्वती-सहित शिव की प्रतिमा बनाकर पूजा की।उस दिन यही भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि के साथ हस्त नक्षत्र भी था।आपकी पूजा से मैं शंकर प्रसन्न हो प्रकट हुआ और वरदान माँगने को कहा।तब आपने कहा कि यदि प्रसन्न हैं तो पत्नीरूप में मुझे स्वीकारें।मैं ‘तथास्तु’ कह अन्तर्धान हो गया।
हे पार्वति! सुबह होते आपने प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर पारण किया।इसके बाद एक पेड़ की छाँव में सखी के साथ विश्राम कर रही थीं कि खोजते-खोजते गिरिराज वहाँ आ गए।उन्होंने आपको देख रोते-बिलखते अंक से लगा लिया और कहा कि इस भयंकर जंगल में यहाँ क्यों आ गई? तब आपने कहा कि मैंने शिवजी का वरण किया था और आप श्रीहरि से विवाह चाह रहे थे, इसलिए ऐसा करना पड़ा।पिता बात मानकर घर लाए और आगे मुझ शिव से ब्याह दिया।यही इस व्रतराज का प्रभाव है।इसे हरितालिका इसलिए कहा गया कि सखीद्वारा आप हरी गई थीं।
तब आपने कहा कि इस व्रत की विधि और फल बताएँ।इसपर मैंने कहा सौभाग्य चाहनेवाली स्त्रियों को तीज के दिन विधिपूर्वक हम दोनों की केले के पौधे आदि से निर्मित, सुसज्जित एवं सुरभित मण्डप में पूजा करनी चाहिए।इस दिन यथाशक्ति अन्न-जल कुछ भी ग्रहण नहीं करना चाहिए।सुबह में प्रतिमा-विसर्जन कर अन्नदान कर पारण करना चाहिए।इस तरह करने से हजारों अश्वमेध एवं सैकड़ों वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है’। (मेरी पुस्तक 'सांस्कृतिक तत्त्वबोध' से)
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