सनातनी भावना
मार्कण्डेय शारदेय
(ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र विशेषज्ञ)
हम सनातन ब्रह्म के प्रतिमान हैं,
इसलिए सबमें हमीं हममें सभी ।
गैर है कोई नहीं इस सृष्टि में,
वैर तो अहम्मन्यता होती तभी।
योनियों की भिन्नता जो दिख रही,
कर्मफल है, भोग है संयोग है।
पशु, विहग, कीड़े लता या वृक्ष हों,
सब हमारे बीच के ही लोग हैं।
इस जनम में हैं मनुज तो क्या हुआ,
पूर्व में हम क्या रहे हैं क्या पता!
फिर बनेंगे क्या कहाँ अज्ञात है,
जीव में शिवदृष्टि सच्ची मनुजता।
विश्व से बन्धुत्व कोरी कल्पना,
मानना मत, ज्ञानजन्मा घोष है।
एक की ही उपज जब संसार है,
भेद क्यों? बस; कर्म में गुण-दोष हैं।
जीव सबमें एक-सा,
पर रूप की विविधता तो आवरण है, खोल है।
कर्म के फल से जुड़ा हर कर्म है,
रोग, दुख-सुख, जय-पराजय घोल हैं।
पूर्वजों का मन्त्र ‘ईशावास्य है जगत्’,
हम भी जानते औ’ मानते।
त्याग में ही भोग है, सुखसार है,
त्याग बिन ही विकृतियाँ पहचानते।
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