भव-सागर के प्रतीर पर
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
भोले शिशुओं का मेला ।
चार दिनों का सुख -विभ्रम,
निश्छल शिशुओं का खेला।
चक्षुष्मानों को अग-जग,
महाश्मशान लगता है।
दृष्टि जहाँ तक भी जाए,
केवल सच्छिव दिखता है।
उदरोपस्थ-परायण जग,
सुख से खा कर सोता है।
सन्त कबीरा वीतराग
चिर जाग्रत् हो रोता है।
दूर क्षितिज से पवनदूत ,
संगीत तुम्हारा लाए ।
हृद्वीणा के तारों को,
. झंकारों से भर जाए।
स्मृति-वातायन खुला रहे ,
उन्मीलित जबतक लोचन।
उठ उठ कर आएँ -जाएँ ,
स्वप्न-सरीखे बीते क्षण ।
जीवन के नाजुक क्षण में,
जब याद घुमड़ आती है।
आस्या-प्रतीति सिरहाने,
मन को सूकून देती है।
चार दिनों का सुख -विभ्रम,
निश्छल शिशुओं का खेला।
चक्षुष्मानों को अग-जग,
महाश्मशान लगता है।
दृष्टि जहाँ तक भी जाए,
केवल सच्छिव दिखता है।
उदरोपस्थ-परायण जग,
सुख से खा कर सोता है।
सन्त कबीरा वीतराग
चिर जाग्रत् हो रोता है।
दूर क्षितिज से पवनदूत ,
संगीत तुम्हारा लाए ।
हृद्वीणा के तारों को,
. झंकारों से भर जाए।
स्मृति-वातायन खुला रहे ,
उन्मीलित जबतक लोचन।
उठ उठ कर आएँ -जाएँ ,
स्वप्न-सरीखे बीते क्षण ।
जीवन के नाजुक क्षण में,
जब याद घुमड़ आती है।
आस्या-प्रतीति सिरहाने,
मन को सूकून देती है।
(आस्या -प्रतीति =स्थित होने का एहसास। पहला छन्द कविकुलगुरु रवि बाबू की पंक्ति-"जगत -पारावारेर तीरे छैले रा करे मेला " की छाया है ।)
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