मैं कहीं भी रहूॅं
चाहे मैं कहीं भी रहूॅं ,गुरु का नाम लेता हूॅं ।
गुरु हैं चाहे जैसे भी ,
चरण थाम लेता हूॅं ।।
अपार है गुरु महिमा ,
गुरु का शुक्रगुजार हूॅं ।
शीश मेरा है चरणों में ,
उनका मैं प्यार हूॅं ।।
नमन गुरु चरणों में ,
उर से मैं आभार हूॅं ।
नत मस्तक चरणों में ,
मैं गुरु सेवादार हूॅं ।।
लगन गुरु चरणों की ,
गुरु भजन धार हूॅं ।
गुरु से विमुख होता ,
फॅंसता मजधार हूॅं ।।
गुरु वचन अमृत है ,
गुरु सेवा आधार है ।
गुरु मुख जो निकले ,
गुरु मोक्ष का द्वार है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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