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यों ही

यों ही

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर) 
जीम रहे सब टहल टहल कर,
साथी, यह कैसा है होटल ?
तुष्ट सभी थे खाने वाले,
आने वाले, जाने वाले।
मैं भी मेनू निरख रहा था,
बैरा से भी पूछ रहा था ।
हेर हेर कर हारे लोचन,
नापसंद थे सारे व्यंजन ।
ऐंठ रही थीं क्षुधित अँतड़ियाँ,
घूर रही थीं शहरी परियाँ ।
नेत्र सभी के थे विस्फारित,
ज्यों कोई हौआ हो लक्षित।
धक्के दे कर जैसे साकी,
चलता कर दे समझ मिराकी।
बैरे का सलूक वैसा ही,
चला वहाँ से मिचलाया जी।
प्रायोपवेश का दृढ व्रतस्थ,
आसीन हुआ मैं वट-तलस्थ।
दिखी क्षपा में झिलमिल छाया,
चिरप्रतीक्ष प्राणों की काया ।
मुझे जिमा कर हुई तिरोहित,
प्राण-ऊर्मियाँ कर चिर लोपित।
अब धरती पर विचर रहा हूँ,
शिव स्वराट् हो विहर रहा हूँ। 
(क्षपा =रात्रि। प्राण-ऊर्मियाँ =भूख और प्यास ।प्रायोपवेश =आमरण अनशन। )
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