उड़ती पतंग
पता नहीं उड़ती पतंग को ,आखिर मैं कहाॅं जा रहा हूॅं ।
बागडोर है किसी हाथ में ,
हवा में हिचकोले खा रहा हूॅं ।।
अंतरीक्ष छूने की चाहत में ,
अंततः मैं तो टूट जाऊॅंगा ।
पुनः आऊॅंगा धरा पर ही मैं ,
किसी के हाथ लूट जाऊॅंगा ।।
या अटकूंगा मैं डालों पे ही ,
या चिथडों में बॅंट जाऊॅंगा ।
या इन ऑंधी तूफानों में ही ,
या वहीं मैं भी डट जाऊॅंगा ।।
आऊॅंगा धरा पर ही मैं भी ,
चाहे किन्हीं भी हालातों में ।
या तो गिरूॅंगा झुग्गी झोपड़ी ,
या राजाओं के ही हातों में ।।
होकर भी मैं तो कटी पतंग ,
पुनः धरा पर ही मैं आऊॅंगा ।
अस्तित्व मेरा ये मिट चुकेगा ,
मैं कटी पतंग कहलाऊॅंगा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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