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काश कोई होता जो बिन कहे सब समझ लेता

काश कोई होता जो बिन कहे सब समझ लेता

ऐसा भी होता जग में कोई ,
जो मेरी नजरों को पढ़ लेता ।
मेरी नजरों को पढ़कर वह ,
एक नई कहानी भी गढ़ लेता ।।
चल देता मंजिल को ढूॅंढ़ने ,
नव मार्ग पर वह कढ़ लेता ।
हासिल करता मुकाम वह ,
सर्वोच्च शिखर पे चढ़ लेता ।।
चल पड़ता वह नव मार्ग पर ,
नव मार्ग पर भी बढ़ लेता ।
जहाॅं मार्ग कोई संशय होता ,
वहीं अल्प समय ठढ़ लेता ।।
मानव मानव एक समझता ,
मानवता कृति समझ लेता ।
काश कोई होता ऐसा जो ,
बिन कहे सब समझ लेता ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।

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