प्रेम जहाॅं मोम बनकर पिघलता ,
प्रेम ही बनता कठोर पत्थर है ।प्रेम ही दया बनकर है उमड़ता ,
प्रेम हैवानों का ही बड़ा गट्ठर है ।।
प्रेम में होता यह अद्भुत शक्ति ,
खग को भी नभ में उड़ाता है ।
किंतु दिखाते जो हैं होशियारी ,
उन्हें खाई में भी वह गिराता है ।।
किंतु प्रेम तो बहुमूल्य तत्व है ,
बस समझने का ही ये फर्क है ।
प्रेम तो है अपने आप में स्थिर ,
किंतु सही गलत लगाते तर्क हैं ।।
प्रेम शब्द बहुत होता महान है ,
प्रेम जन को माला में पिरोता है ।
अंतर्मन में भरा हो ईर्ष्या नफरत ,
प्रेम ही उस गंदगी को धोता है ।।
कहीं छलकाता है प्रेम का ऑंसू ,
प्रेम ही कहीं दर्द झलकाता है ।
नहीं समझा है प्रेम को जिसने ,
अंदर अंदर पलकें भिगोता है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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