मधुशाला साहित्यिक परिवार हेतु
मत रोको कलम अपनी ,निरंतर कलम चलने दो ।
जलती हों जो भी ऑंखें ,
उन ऑंखों को जलने दो ।।
बुराई जो कर दे उजागर ,
उस कलम को फलने दो ।
तला रहे जो तेल में निज ,
खौलते तेल में तलने दो ।।
खल रही हैं कलमें जिन्हें ,
उनको कलमें खलने दो ।
पल रही हैं गंदगी जिनमें ,
कारागार उन्हें पलने दो ।।
बहुत हुए हैं छलिया यहाॅं ,
उनको भी तुम मचलने दो ।
माताऍं बहनें रहें सजग ,
कलमों को तुम चलने दो ।।
गल रहे करतूतों से अपनी ,
बर्फ की तरह गलने दो ।
चल रही हैं कलमें जो भी ,
उन कलमों को चलने दो ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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