धिक्कार है तुम पर

धिक्कार है तुम पर

मानव में जन्म लिए हो ,
मानव बन न सके तुम ।
आए जिस उद्देश्य धरा पे ,
उद्देश्य को तन न सके तुम ।।
आए तो थे साथ निभाने ,
मुॅंह मोड़कर तुम चले भए ।
था कोई कुछ आस लगाए ,
उसे छोड़कर ही चले गए ।।
आए तो तुम मानव बनने ,
किंतु नहीं तुम मानव बने ।
होश संभाल यों तुम बदले ,
धरा पे आकर दानव बने ।।
बनते तुम सबके हितकारी ,
जरूरतमंद भगाते दुत्कारी ।
आए तो महामारी भगाने ,
स्वयं बन रह गए महामारी ।।
तुम किसी कि सहारा बन ,
उल्टे सहारा तू छिन लिया ।
ईर्ष्या द्वेष शोषण का जाल ,
मन में तुमने ही बुन लिया ।।
धन लूटा अस्मत भी लूटा ,
अब क्या लूटना बाकी है ?
पछता रही नारी धरा पे आ ,
ऐसी न्याय ये कहाॅं की है ?
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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