भक्ति और राजनीति
जैसा कि उपरोक्त शब्दों के गठन से ही उनका वास्तविक अर्थ सामने आता है कि वे दोनों दो तरह के अलग अलग कर्म और विचार हैं। ये दोनों कभी समान आचरण हो ही नहीं सकते। इसमें भक्ति वह है जिसमें मनुष्य अपने अंत:मन से भगवान् से जुड़ता है। उनकी आराधना और पूजा अर्चना करता है। वह सनातन धर्म के विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता है। उसमें दिखावे की कोई गुंजाइश नहीं रहती है।
दूसरी ओर राजनीति वह है जिसमें उद्देश्य एक मात्र राजसत्ता के इर्दगिर्द रहना है। इसमें मनुष्य अपने, अपने अनुवांशिक तथा अपने दल के लाभ के लिए हर तरह का भला बुरा, छल कपट कर राजसत्ता हासिल करना चाहता है। इसमें सत्य और धर्मनिष्ठा का कोई विशेष स्थान नहीं है। इसमें " येनकेन प्रकारेण " सत्ता हथियाना ही मुख्य उद्देश्य रहता है।
परंतु विडम्बना यह है कि भारतवर्ष में विगत कुछ वर्षों से इन अलग अलग दोनों धाराओं को हमारे राजनीतिज्ञों ने जोड़ दिया है। अब देश में जब भी कोई संसदीय अथवा विधानसभा चुनाव का ऐलान होता है तो राजनेताओं का राजनीति में भक्ति समावेश शूरू हो जाता है। जो जीवन में कभी मंदिरों में नहीं गए हैं, वे सनातनी वेश पहनावा जनेऊ आदि धारण कर अपने लाव लस्कर के साथ मंदिरों में जाने लगते हैं और दिखावे का पूजा अर्चना करते हैं। यह वास्तव में कर्म होता है भगवान् की पूजा के लिए नहीं, बल्कि भारत के हिन्दू जनमानस को अपने तथा अपने दल के पक्ष में प्रभावित करने के लिए। थोड़े समय चुनाव की अवधि तक वे ऐसा प्रपंच रचते हैं, परंतु अंततोगत्वा भगवान् के सामने उनकी कलई खुल ही जाती है। भगवान् उनके इस दिखावे को अच्छी तरह समझते हैं और जनमानस के हाथों ही उनको उचित फल प्रदान करते हैं।
इस संदर्भ में संत तुलसीदास जी द्वारा रामचरितमानस में लिखी गई कुछ पंक्तियों को यहाँ आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसका अवलोकन करें :-
करम वचन मन छाड़ि छलु,
जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुख सपनेहुँ नहीं,
किए कोटि उपचार।
भावार्थ यह है कि छल कपट छोड़ कर जब तक कोई मन, वचन और कर्म से भगवान् की भक्ति नही करता है, तब तक उसे सुख और लाभ स्वप्न में भी नहीं मिल सकता है, चाहे वह लाख उपाय करले।
सपने होई भिखारी नृप,
रंक नाकपति होइ।
जागे हानि न लाभ कछु,
तिमि प्रपंच जियं जोइ।।
भावार्थ यह है कि स्वप्न में राजा भिखारी बन जाता है, और भिखारी राजा बन जाता है। स्वप्न की अवस्था में यह प्रपंच केवल उस सोए हुए व्यक्ति के मन में होता है। जागने पर वह जिस अवस्था में था, उसी अवस्था में रहता है, उसे कोई हानि अथवा लाभ नहीं हुई रहती है।
वास्तव में यही अवस्था उन मनुष्यों एवं राजनीतिज्ञों की होती है, जो दिखावे के लिए भक्ति को राजनीति से जोड़ते हैं
तथा राजा होने का स्वप्न देखते हैं। जय प्रकाश कुवंर
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