कुछ कमियाँ अपनों की हैं, कुछ दोष सियासत का,
कुर्सी ख़ातिर लड़ाया सबको, है खेल सियासत का।अपने भी तो धर्म भूलकर, लाभ के पीछे दौड़ रहे थे,
धर्म गुरू को धर्म भीरू बनाया, यह विचार सियासत का।
बहुत विषम हालात बने हैं, धर्म की बात नहीं होती,
धर्म का मर्म नहीं समझते, कर्म की बात नहीं होती।
कुरुक्षेत्र में कृष्ण बताते, धर्म कर्म आधार जगत का,
मानवता है सार धर्म का, मर्म की बात नहीं होती।
गुरू द्रोण जब धर्म भूलकर, बस सत्ता के दास बने,
निज स्वार्थ कुंठाएँ के चलते, बस सत्ता के दास बने।
एकलव्य पर कुठाराघात, कर्ण से भी भेदभाव किया,
धर्म मर गया था भरी सभा में, जब सत्ता के दास बने।
अ कीर्ति वर्द्धन
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