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कभी काली घटाओं में, बिजली सी चमकती है

कभी काली घटाओं में, बिजली सी चमकती है

कभी बादल के पीछे से, सूरज सी दमकती है।
कभी गरजती नभ में वह, चपला दामिनी जैसी,
कभी चन्दा सी दिखती है, शीतलता बरसती है।
वह कितने रूप रखती है, कभी यह जान न पाया,
कभी दरिया मोहब्बत का, नफरत बन उमड़ती है।
कभी हिरणी सी चंचलता, तितली सी वो सतरंगी,
कभी सादगी की मूरत बन, नित रंग बदलती है।
कभी ख़्वाबों में आती है, मुझे नींदों से जगाती हैं,
कभी जब सामने होती, अनदेखा कर गुजरती है।
एक हवा का झौंका सी, अहसास होने का दिलाती,
जब भी चाहा उसको पाना, खुश्बू बन बिखरती है।
अ कीर्ति वर्द्धन
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