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दीपावली के दिन गणेश-लक्ष्मी पूजन क्यों? श्रीराम-सीता या लक्ष्मी-विष्णु की क्यों नहीं?

दीपावली के दिन गणेश-लक्ष्मी पूजन क्यों? श्रीराम-सीता या लक्ष्मी-विष्णु की क्यों नहीं?


दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा जी के कलम से |

सर्वविदित है कि दिपावली अंधकार पर प्रकाश की विजय का धोतक है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि एक ज्योति होता है, जो पृथ्वी की समस्त वस्तुओं से परे, ध्रुव लोक से परे, उच्च से उच्च लोकों में भी जगमगा रही है और यही वह दिव्य ज्योति होता है जो प्राणी मात्र के हृदय में भी विराजती है। दीपावली को कालरात्रि और महानिशा की संज्ञा भी दी गई है।


मार्कण्डेय पुराण के अनुसार समस्त सृष्टि की मूलभूत आद्याशक्ति महालक्ष्मी है। वह सत्य, रज और तम तीनों गुणों का मूल समवाय है। वहीं आद्याशक्ति है। वह समस्त विश्व में व्याप्त होकर विराजमान है। वह लक्ष्य और अलक्ष्य, इन दो रूपों में रहती है। लक्ष्य रूप में यह चराचर जगत ही उसका स्वरूप हैं और अलक्ष्य रूप में यह समस्त जगत की सृष्टि का मूल कारण है। उसी से विभिन्न शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। दीपावली के दिन इसी महालक्ष्मी का पूजा होता है। तामसिक रूप में वह क्षुधा, तृष्णा, निद्रा, कालरात्रि, महामारी के रूप में अभिव्यक्त होती है। राजसिक रूप में वह जगत का भरण-पोषण करने वाली श्री के रूप में उनलोगों के घर में आती हैं। जिन्होंने पूर्व जन्म में शुभ कर्म किए होते हैं। परन्तु इस जन्म में उनकी वृति पाप की ओर जाती है तो वह भयंकर अलक्ष्मी बन जाती है। सात्विक रूप में वह महाविद्या, महावाणी भारती, वाक्, सरस्वती के रूप में अभिव्यक्त होती है।मूल आद्याशक्ति ही महालक्ष्मी है।


प्रायः देखा जाय तो लोगों के मन मस्तिष्क में यह संशय बना रहता है कि जब दीपावली भगवान श्रीराम के 14 वर्ष वनवास के उपरांत अयोध्या लौटने की खुशी में मनाई जाती है तो फिर दीपावली के दिन गणेश-लक्ष्मी पूजन क्यों होता है? जबकि श्रीराम और सीता की पूजा होना चाहिए। यह भी संशय बना रहता है कि लक्ष्मी के साथ गणेश जी की पूजा क्यों होती है, विष्णु भगवान की क्यों नहीं?


जानकारी के अनुसार दीपावली का उत्सव दो युग, सतयुग और त्रेता युग से संबद्ध है। सतयुग में समुद्र मंथन से उस दिन लक्ष्मी जी प्रगट हुई थी इसलिए लक्ष्मी जी का पूजन होता है और भगवान श्रीराम भी त्रेता युग में इसी दिन अयोध्या लौटे थे तो अयोध्या वासियों ने घर घर दीप जलाकर उनका स्वागत किया था, इसलिए इसका नाम दीपावली पड़ा।


लक्ष्मी जी समुद्र मंथन में मिली और भगवान विष्णु ने उनसे विवाह किया, लक्ष्मी जी को धन और ऐश्वर्य की देवी बनाया गया। लक्ष्मी जी ने धन बाँटने के लिए कुबेर को अपने साथ रखा। कुबेर बड़े ही कंजूस थे, वे धन बाँटते ही नहीं थे। लक्ष्मी जी व्यथा भगवान विष्णु को बताई। भगवान विष्णु ने कहा कि तुम कुबेर के स्थान पर किसी अन्य को धन बाँटने का काम सौंप दो। माँ लक्ष्मी बोली कि यक्षों के राजा कुबेर मेरे परम भक्त हैं उन्हें बुरा लगेगा। तब भगवान विष्णु ने उन्हें गणेश जी की विशाल बुद्धि का प्रयोग करने की सलाह दी। लक्ष्मी जी ने गणेश जी को भी कुबेर के साथ बैठा दिया। गणेश जी ठहरे महाबुद्धिमान। वे बोले, माँ, मैं जिसका भी नाम बताऊँगा, उस पर आप कृपा कर देना और इसमें कोई किंतु परन्तु नहीं होनी चाहिए। लक्ष्मी जी ने हाँ कर दी।अब गणेश जी लोगों के सौभाग्य के विघ्न, रुकावट को दूर कर उनके लिए धनागमन के द्वार खोलने लगे। कुबेर भंडारी देखते रह गए, इस प्रकार गणेश जी कुबेर के भंडार का द्वार खोलने वाले बन गए। गणेश जी की भक्तों के प्रति ममता कृपा देख लक्ष्मी जी ने गणेश जी को आशीर्वाद दिया कि जहाँ वे अपने पति नारायण के साथ नहीं रहेंगी, वहाँ पुत्रवत गणेश जी रहेंगे। कार्तिक अमावस्या को दीपावली मनाया जाता है और भगवान विष्णु उस समय योगनिद्रा में रहते हैं, योगनिद्रा से वे जागते हैं ग्यारह दिन बाद देव उठनी एकादशी को। लक्ष्मी जी को पृथ्वी भ्रमण शरद पूर्णिमा से दीपावली तक करने आना होता है, इसलिए लक्ष्मी जी अपने सँग गणेश जी को ले आती हैं।इसलिए दीपावली को लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजा होती है।


दिपावली पर्व पंचदिवसीय पर्व होता है। इसका आरम्भ धनत्रयोदशी से होकर भाई दूज तक चलता है। इस पंचदिवसीय पर्व की परम्पराएं आरोग्य, दीर्घायु एवं सुख समृद्धि प्राप्ति के साथ साथ पारिवारिक सामाजिक दायित्वों के निर्वहन एवं उल्लास, उमंग, हर्ष और नवीन आशाओं के सपने से ओत प्रोत होता है। धनतेरस पर यम के निमित दीपदान, चतुर्दशी पर यमतर्पण एवं दीपदान आदि अपमृत्यु से बचाव एवं दीर्घायु की प्राप्ति का धार्मिक प्रयास माना गया है। धनतेरस पर नवीन वर्तनों एवं वस्तुओं की खरीदगी की जाती है, दीपावली पर महालक्ष्मी, श्रीगणेश, कुवेर आदि देवी देवताओं के पूजन करने की परम्पराएं है, धन, सुख एवं समृद्धि प्राप्ति से प्रत्यक्षतः रूप से यह पर्व जुड़ी हुई है। गोत्रीरात्रि व्रत, अन्नकूट आदि की परम्परा पशुपालन एवं कृषि के माध्यम से सुख समृद्धि प्राप्ति से संबंधित है।


पंचदिवसीय पर्व में पहला दिन कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी व्रत मनाया जाता है। इस दिन धनतेरस, धन्वन्तरी पूजा एवं प्राकट्योत्सव, नवीन वस्तुओं का क्रय, दीपदान, कुवेर पूजन और गोत्रीरात्र व्रत मनाया जाता है।


दूसरा दिन कार्तिक कृष्ण पक्ष को रूप चतुर्दशी व्रत मनाया जाता है। इस दिन उबटन से स्नान, यमतर्पण, श्रीहनुमान पूजन एवं जन्मोत्सव दीपदान और छोटी दीपावली मनाया जाता है।
नरक चतुर्दशी, जिसे छोटी दिवाली, रूप चौदस या काली चौदस के नाम से भी जाना जाता है, दिवाली से एक दिन पहले मनाई जाती है। इसका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है, और इसे बुराई के अंत और नई शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था और 16,108 कन्याओं को उसके बंधन से मुक्त कराया था। इस प्रकार, नरक चतुर्दशी पर बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव  मनाया जाता है।

इस दिन सुबह तेल से अभ्यंग स्नान (तेल स्नान) करने की परंपरा होती है, जिसे नरक स्नान भी कहते हैं। यह माना जाता है कि इससे व्यक्ति अपने पापों से मुक्त हो जाता है और सुख, समृद्धि एवं स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। कई लोग इस दिन को रूप चौदस के रूप में भी मनाते हैं और अपनी सुंदरता व आत्म-विश्वास को बढ़ाने के लिए विशेष रूप से सजते-संवरते हैं।

नरक चतुर्दशी पर दीप जलाने की परंपरा भी है, जो बुराई के अंधकार को दूर कर जीवन में प्रकाश लाने का प्रतीक है।


तीसरा दिन कार्तिक पक्ष की अमावस्या व्रत मनाया जाता है। इस दिन पितृपूजन, महालक्ष्मी पूजन, दीपमाला, लक्ष्मी उपासना, काली उपासना किया जाता है।


चौथा दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा व्रत मनाया जाता है। इस दिन अन्नकूट और गोवर्धन पूजा किया जाता है।

पांचवा दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को यमुना स्नान, यमतर्पण, चित्रगुप्त पूजा, विश्वकर्मा पूजा, बहिन के घर भोजन और बहिन द्वारा भाई को टीका लगाया जाता है
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