धुवां धुवां
लेखक मनोज मिश्र इंडियन बैंक के अधिकारी है|
जल रहा मकान हैसुलगा हुआ शमशान है
धुवां धुवां है जिंदगी
हर शख्स परेशान है
खैर पूछने का भी वक़्त
आज मयस्सर है नहीं
जिंदगी की जद्दो जहद
कहाँ आ गया है आदमी
दो रोटी की भी कदर
हो पाई हम से नहीं
जिनके पीछे भागते
ज़िंदगानी कट गयी
भूल बैठे क्यूँ हम उन्हे
जिनने हम मे जान दी
की नहीं अपनी फिकर
हम पे जिंदगी कुर्बान दी
रिश्ते नाते सारे टूट गए
तोड़ीं सारी उम्मीदें यकीन
कुछ न मांग बैठे कहीं
ये सोच पहचाना नहीं
सोचते थे दौर अपना
खतम कभी होगा नहीं
आज हमारे हाल पर
दो आँसू कोई रोता नहीं
कैसे गुजरता उनका समय
अँधेरों के इस दौर मे
दीप बनके जो जले
घुप्प अमावस रात मे
हर कोई यह सोचता
है ये मेरा काम कहाँ
फिर भी करे उम्मीद है
सब सही होगा यहाँ
बड़ा अजीब सा ये दौर है
विडम्बना चहुं ओर है
शांति की तलाश मे
हर कोई करता शोर है
हैं फासले पटते नहीं
खड़ी कर रखी दीवार है
थकते नहीं बताते फिर भी
वो शख्स मेरा यार है
बुतपरस्ती के खिलाफ
आवाज हर ओर है
फिर भी आज अवाम मे
बुत बनने की होड है
पत्थरों का शहर है
भावना का क्या काम है
कुचल कर आगे बढ़ो
यही दे रहा पैगाम है
छोड़ दो ये लीक मिसर
ये कहीं भी जाती नहीं
संग लो हर आम को
करने कोई शुरुआत नई
उम्मीद नहीं यकीन है
बदलने वाला दयार है
होगी सुबह फिर से नई
बहार का इंतजार है|
मनोज कुमार मिश्र
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