वृद्ध , बुजुर्ग , बूढ़ा
मैं हूॅं वृद्ध तुम हो युवा ,पिता पुत्र का नाता है ।
मेरी परीक्षा तेरी परीक्षा ,
कैसा बनाया विधाता है ।।
मेरी परीक्षा धैर्य की है ,
तेरी परीक्षा है कर्म की ।
मेरा खून ये ठंढा हुआ है ,
तेरा खून अभी गर्म की ।।
हो रहे जितने उतावले ,
सारे मैं भी झेल चूका हूॅं ।
खेलोगे जो तुम ये खेल ,
सारे खेल खेल चुका हूॅं ।।
यही देखते बूढ़ा हुआ हूॅं ,
बहुत मिली है मुझे सीख ।
दर्दनाक घटनाऍं ऐसी होतीं ,
निकल भी न पाता चीख ।।
विधि का विधान है ऐसा ,
कल मेरी जरूरत तुझे थी ।
तन मस्तिष्क स्वस्थ रहे ये ,
माॅं पिलाती तुम्हें देशी घी ।।
तब तुम थे बहुत ही बच्चे ,
पोष पालकर बड़ा किया ।
पढ़ा लिखा सुयोग्य बनाया ,
तुझे निज पद खड़ा किया ।।
तब था मैं तेरा प्यारा पिता ,
आज तुम मेरे बने पिता ।
बच्चा बूढ़ा समान होता ,
बारी मेरी चढ़ने की चिता ।।
मैंने तुझे जो सम्मान दिया ,
वही दे दो मुझको सम्मान ।
मैंने पूर्ण अरमान किया था ,
मेरा पूर्ण करना अरमान ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण ) बिहार ।
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