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मैं हूॅं एक दीपक

मैं हूॅं एक दीपक

धन्य है उसका जीवन , जिसने मेरा आविष्कार किया है । जब मैं दूसरों के लिए इतना जलता हूॅं तो वह दूसरों के लिए कितना जलता होगा । रह बहुत सोचनीय बात है । अब रही बात मेरी तो मेरा जन्म ही मानव को प्रकाश देने के लिए हुआ है । मुझमें जबतक शक्ति है तबतक मैं सदैव प्रकाश देता रहता हूॅं , क्योंकि तुम मानव हो न ! प्रकाश की आवश्यकता तो मानव को ही है , क्योंकि मानव होता बुद्धिजीवी है , दयालु है , परोपकारी है । पशुओं पक्षियों को अंधकार प्रकाश से क्या प्रयोजन है ? उसके लिए तो शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष दोनों ही समान हैं । यही कारण है कि मेरी उत्पत्ति केवल मानवों के लिए हुई है । धन्य है मेरा भी भाग्य यह , मैं जन जन के लिए उपयोगी हूॅं । मेरे बिना मानव रह नहीं सकता और मेरा प्रेम भी इन मानवों से इतना बढ़ गया है कि मैं भी इनके बिना जीवित नहीं रह सकता ।
यूॅं तो लोग ये भी कहते हैं कि स्वयं को रखता है अंधेरे में और दूसरे को प्रकाश देने चला है । जी हाॅं , बात भी बिलकुल यथार्थ है । मैं स्वयं अंधेरे में ही रहता हूॅं , किंतु जन जन को उजाला देता हूॅं । मुझे इसकी चिंता नहीं कि मैं अंधेरे में रहता हूॅं , किंतु इसका मुझे गर्व है कि मैं दूसरे के लिए जलता रहता हूॅं । वास्तव में मानव की संतुष्टि ही , मानव की खुशी ही मेरा प्रकाश है । मैं स्वयं को केवल अंधेरे में रहकर ही नहीं , बल्कि स्वयं को जला जलाकर मुझमें जबतक शक्ति होती है , तबतक मानव को प्रकाश देता रहता हूॅं । जब मेरी शक्ति क्षीण हो जाती है तो मैं अर्थ विहीन हो जाता हूॅं ।
इतना ही नहीं , सनातन धर्म के त्यौहार में तो मेरा उपयोग बढ़ जाता है । उस त्यौहार में में मैं एक नहीं , अनेक हो जाता हूॅं । मेरा उपयोग तो भगवान राम के वन से आगमन के उपलक्ष्य में विशाल आयोजन किया गया था । मुझे कई भागों में करके घर घर जलाया गया था और उसी समय से यह आयोजन होता चला आ रहा है ।
इतना ही नहीं , मुझे जलाकर ही माॅं लक्ष्मी की पूजा की जाती है और वे शीघ्र ही खुश होकर भक्त को मनोवांछित फल देती हैं । अब तो आपलोग समझ गए होंगे कि मैं कौन हूॅं ?
मैं हूॅं एक दीपक ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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