सप्तम् रूप कालरात्रि
सप्तम् रूप हैं कालरात्रि ,सप्तम् दिवस आईं मातृ ।
भयंकर विकराल है रूप ,
भक्तों हेतु दया की दातृ ।।
तुम्हीं तो माॅं महाप्रलय है ,
असुरों हेतु तुम कालरात्रि ।
छल अपराध क्षमा न करें ,
भक्तों के उर तुम हो यात्री ।।
दिखने में लगती हो काली ,
चित्त कहलाती तुम गोरी ।
चतुर सयान जो भी बनते ,
उनकी चतुराई तुम थोड़ी ।।
तुम्हीं तो हो माॅं कालरात्रि ,
तुम्हीं कहलाती है भयंकरी ।
जितने बाहर दिखती क्रूर ,
उतने अंदर से है शुभंकरी ।।
जय जय हो कालरात्रि माॅं ,
तुम्हें सादर सहृदय प्रणाम ।
उर से बुराई दूर करो माता ,
शरण निज मुझे लो थाम ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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