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शरद आ गई

शरद आ गई

मार्कण्डेय शारदेय
वर्षा बीती और शरद आ गई।मायने, सरदी आ गई।आई तो क्यों आई, मत पूछो।जानना है तो जानो, क्यों आई, कैसे आई और क्या लाई? भाई!आई है तो स्वागत कर लो न पहले! यह खुशमिजाज है, बड़ी प्यारी है।गुस्सैल एकदम नहीं।दिलदार है।कन्या राशि के सूर्य के साथ आती है और वृश्चिक के भय से भाग जानेवाली है।जब तक है, तब तक ले लो न मजे! इसके स्वागत में गाओ न! वैदिक गान करो न :
‘पश्येम शरदः शतम्।
शृणुयाम शरदः शतम्।
प्रब्रवाम शरदः शतम्।
अदीनाः स्याम शरदः शतम्।
भूयश्च शरदः शतात्।‘
तुला के सूर्य का होना इसका यौवन काल है।
आश्विन आते वर्षा भागने लगती है।फूहड़ औरत की सी बरसात ने जो गन्दगी फैलाई थी, उसे गुणी-गिहिथिन नारी की तरह शरद आते के साथ साफ-सुथरा, दुरुस्त करने में लग जाती है।पाँचो तत्त्व इसके वशवर्ती हो जाते हैं।मौसम समशीतोष्ण।वसन्त-सा कहना नाजायज नहीं।परन्तु, तुलना आसान भी नहीं।हाँ, वर्ष की तुला पर चढ़ाएँ तो ठीक दो-दो ऋतुओं की दूरी।महीनों से लें तो छह-छह महीनों की दूरी पर दोनों।हाँ, अन्तर यह भी कि वह पुरुष तो यह स्त्री।वह गरमी की ओर जाता तो यह ठंड की ओर जाती।दोनों में सम्बन्ध जोड़ना मुश्किल-ही-मुश्किल।छत्तीस का सम्बन्ध तो कहा भी जा सकता है और नकारा भी जा सकता है।एक मायने में कहना जायज है कि दोनों एक दूसरे से दूर-दूर रहते हैं।दिवा-रात्रि की तरह भी नहीं, क्योंकि वे पास-पास रहकर भी दूर-दूर रहते हैं, ठीक दक्षिणी गोल और उत्तरी गोल-से दूर-दूर।परन्तु, दोनों की प्रकृति सौम्य है।दोनों लोकाराधन को मुख्य कर्म मानने वाले हैं।वह रबी की फसलों से हमें सम्पन्न करता है तो यह खरीफ से।
हाँ, वसन्त ऋतुराज कहा जाता तो यह ऋतुराज्ञी।ऋतुओं का राजा और ऋतुओं की रानी कहना सरासर गलत है।ऋतुओं पर शासन ही इनका कब और कहाँ हो पाता है? ऋतुओं में राजा एवं ऋतुओं में रानी, कहना ही जायज है; पूरा-पूरा जायज।कारण है; किसी शासक-शासिका से हम यही अपेक्षा करते हैं कि हमारा जीवन सुखी हो।ये दोनों यही करते हैं।
यह आई तो पर्व-त्योहार दौड़े चले आए।दुर्गोत्सव-दशहरा, धनतेरस-दीवाली, छठ, देवोत्थान-जैसे और कितने ही।इससे कर्मवाद की सीख मिलते लोग भी कर्मण्य हो गए।इसकी स्फूर्ति से स्फूर्त। देखा-देखी पुण्य, देखा-देखी पाप।चारों तरफ साफ-सफाई, चारों तरफ खुशहाली।कहीं खेतों में दानों से गदराई धान की पौधें तो कहीं जुते-जोते जाते खेत।कहीं उगती-फफनती गेहूँ, चना, मटर, जौ, तीसी, सरसों की फसलें तो कहीं फूलगोभी, बन्दगोभी, मूली, पालक, टमाटर की क्यारियाँ।अच्छी-अच्छी सब्जियों की सौगात ही लिये आती है यह।भोजन की थाली भी इनके व्यंजनों से सज जाती है और भोजन भी इनकी खुशबू से खुशबूदार-जायकेदार हो जाता है।
हाँ, वर्तमान जंगलों का विनाश काल है, बाग-बगीचों के लिए भी अनुदार ही है।तो भी इसे गमला युग तो कह ही सकते हैं न!गमले में ही बरगद, पीपल, आँवला, केला- जैसे पेड़-पौधों का वामनीकरण हो रहा है न!आखिर हमारी बढ़ती आबादी के कारण खाली जमीन ही कहाँ बची कि जंगलों को जीने-जागने दें!बाग-बगीचों को पाले-पोसें!खुले में रहनेवाला जन-जीवन अब फ्लैटों-पिंजरों का आदी बनता जा रहा।घर का आँगन छिन गया।चबूतरे छिन गए।पेड़-पौधों को जगह दें तो कहाँ?गनीमत है कि हमें अन्न चाहिए, साग-सब्जी चाहिए, फल-मूल चाहिए; नहीं तो खेतों को भी हम खा जाते, पादपवर्ग की तस्वीर सजाकर ही भगवान की तस्वीरों की तरह खुशी मनाते, बड़भागी बनते।
खैर, सम्पन्नों की लानों-फुलवाड़ियों में व सिकुड़े शौकीनों के गमलों में इस समय खिले गेंदे के नाना रूप-रंग मन मोहते हैं तो कहीं गुलदाऊदी की खुशबू।रात आते रातरानी की महक भी नाक की राह से दिल तक पहुँच ही जाती है।
यह ऐसी ऋतु कि चाँद-सूरज दोनों हमें प्यारे लगने लगते हैं।यद्यपि बढ़ती ठंड पर ही सूरज अधिक भाता है, पर चाँद को क्या कहना! इसका चाँद सबको प्यारा लगता है।इसमें दो पूर्णमासियाँ आती हैं।दो पूर्णचन्द्रों में ‘को बड़-छोट कहत अपराधू’ की स्थिति हो जाती है।तो भी आश्विन पूर्णिमा को ही शरत्पूर्णिमा कहा जाता है।इसी के चन्द्र को कवियों ने उपमानार्थ सँजो रखा है।आखिर, अभी-अभी गई वर्षा ऋतु ने आकाश को धो-पोंछकर सर्वथा निर्मल जो कर दिया है! स्वच्छ नील गगन में खिलखिला कर सोलह कलाओं के साथ आया चाँद क्यों न निहाल करे! क्यों न मन को भाए! यों भी चाँद की चाँदनी किसी षोडशी से कम प्रिय कभी नहीं रही।बच्चों से बूढ़े तक इसकी आह्लादकता, सौम्यता के कायल रहे।फिर तो यह सर्वोपरि है- “मधुराधिपतेः अखिलं मधुरम्”।
क्या-क्या बखाना जाए और क्या-क्या छोड़ा जाए! जिधर देखिए, उधर ही मन अँटक जाता है।वह खिंचा चला जाता है।माना कि वसन्त को कुसुमाकर कहा गया है, पर इसके यहाँवाले फूल क्या उसके यहाँ मिलेंगे?खासियत और खूबसरती के भी पैमाने होते हैं।कोई सर्वगुण-सम्पन्न नहीं होता और कोई सर्वथा गुणहीन भी नहीं होता।दो बहुमूल्य रत्नों की अपनी-अपनी खासियत होती ही है, वैसे ही वसन्त और शरद्, दोनों में अधिक साम्य के बावजूद कुछ-कुछ वैषम्य तो है ही।धार्मिक व पौराणिक दृष्टि से दोनों के दूसरे महीने विष्णु को बेहद प्रिय हैं, इसीलिए जहाँ वैशाख-माहात्म्य है तो कार्तिक-माहात्म्य भी।हाँ, कभी वैशाख वसन्त का महीना रहा हो, शास्त्रानुसार है भी, पर अब फागुन-चैत ही हो गए।फागुन क्यों ?वसन्त-पंचमी से ही शुरूआत मान ली गई। गनीमत है कि शरद के साथ ऐसा घालमेल नहीं।यह आश्विन-कार्तिक से साथ जुड़ी कि जुड़ी ही है।जितने खुशियों के त्योहार यह लाती है, उतने और कौन ला पाता है? सच है, उत्तम प्रकृतिवाले दोस्त मिल जाएँ तो जीवन खुशहाल हो जाता है।

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