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असुर संहारिणी महिषासुर मर्दिनी दुर्गा-अशोक “प्रवृद्ध”

असुर संहारिणी महिषासुर मर्दिनी दुर्गा-अशोक “प्रवृद्ध”

भारत में नवरात्र आदि अवसरों पर निर्मित प्रतिमाओं के चित्रण में देवी को महिषासुर का वध करते हुए चित्रित किए जाने की पौराणिक, ऐतिहासिक व विस्तृत परंपरा है। पौराणिक कथाओं में दुर्गा को असंख्य नामों के साथ ही महिषासुर मर्दिनि भी कहा गया है। दुर्गा ने महिषासुर का दमन किया था, मर्दन किया था। मान्यतानुसार असुरों के राजा रंभासुर का पुत्र महिषासुर एक महान असुर हो गया था। रंभ को एक महिषी अर्थात भैंस से प्रेम हो गया। महिषासुर इन्हीं दोनों की संतान था। मनुष्य और भैंस के समागम से पैदा होने के कारण महिषासुर अपनी इच्छानुसार मनुष्य अथवा भैंसा का रूप धारण कर सकता था। महिषासुर ने भगवान ब्रह्मा की कठोर तपस्या कर ब्रह्मा से यह वरदान प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली कि देवता अथवा दानव कोई उस पर विजय प्राप्त न कर सके। ब्रह्मा का वरदान पाकर महिषासुर आततायी हो गया। वह देवलोक में उत्पात मचाने लगा। उसने इंद्रदेव पर विजय पाकर स्वर्ग पर कब्जा जमा लिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश समेत सभी देवतागण परेशान हो उठे। महिषासुर के संहार के लिए सभी देवताओं के तेज से माता दुर्गा का अवतरण हुआ। दुर्गा को सभी देवताओं ने अपने अस्त्र-शस्त्र दिए। शिव ने अपना त्रिशूल दिया, विष्णु ने अपना चक्र दिया, इंद्र ने अपना वज्र और घंटा दिया। इसी तरह से सभी देवताओं के अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित दुर्गा शेर पर सवार होकर महिषासुर का संहार करने निकली।

महिषासुर राजा का वध करने निकली एक शरीरधारी रानी दुर्गा की यह प्रचलित पौराणिक कथा बिना सिर पैर के कथानक पर आधारित वैज्ञानिकता के सत्य से परे आज के वैज्ञानिक युग में पूरी तरह से नकारने योग्य है। इस पर बिश्वास करना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है। वैदिक संहिताओं में प्रयुक्त में दुर्गा शब्द का अर्थ और इसका अलंकारिक भाषा में भावार्थ कुछ अन्य ही है। मनुष्य और भैंस के समागम से संतान उत्पन्न होना, उनसे उत्पन्न संतान का मनुष्य का और भैंस का रूप धारण करना, असुर को मार सकने योग्य दुर्गा की उत्पत्ति करने वाले विष्णु, महेश अर्थात परमात्मा का महिषासुर के सामने शक्तिहीन होना आदि बातें ईश्वर के अथवा प्राकृतिक नियमों के विपरीत, असंगत व तर्क से परे लगती हैं।

कथा के अनुसार महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को परेशान करने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। उसने शांतिप्रिय जनता का जीना दूभर कर दिया। उसने सभी देवताओं को वहाँ से खदेड़ दिया। उसके डर से वह देवता तुल्य विद्वान लोगों ने पलायन शुरू कर दिया। और कोई उपाय न मिलने पर देवताओं ने उसके विनाश के लिए दुर्गा का सृजन किया, जिसने महिषासुर का वध किया। दुर्गा ने भैंसा जैसे असुर राजा का वध किया, जिसकी प्रवृति अच्छी न थी, राक्षसी थी, अमानवीय थी। ऐसी भैंसा के समान अमानवीय प्रवृति वाले अत्याचारी असुर राजा का एक दिन विनाश होता ही है। इस कथानक में असुर राजा का रानी दुर्गा ने संहार किया। महिषासुर का दमन करने वाली एक शक्तिशाली आर्य नारी दुर्गा की साहस, आदर्शवादी व बहादुरी की पौराणिक कथाएं अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती रही हैं, लेकिन कालांतर में इसे गलत ढंग से प्रस्तुत कर मूर्ति का रूप देकर पूजा जाने लगा।


वैदिक विद्वानों के अनुसार यह पौराणिक कथा मनुष्य की रणनीति, शक्ति और अहंकार के दमन का वर्णन है। इस कथानक में महिषासुर मन के लिए प्रयोग हुआ है। मनुष्य अपने मन का राजा है और यह मन महिषासुर की भांति है, जिसमें अशुद्ध -कलुषित प्रवर्तियां भी जन्म लेती रहती है। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है। इसलिए उसमें देव और असुर दोनों प्रकार की प्रवृतियां जाग्रत होती रहती है। अत्यधिक गुणी व्यक्ति में अहंकार उत्पन्न हो जाना, ज्ञान का भी दुरूपयोग होना आदि प्रवृति को महिषासुर प्रवृति का नाम दिया है। इन सबके ऊपर ब्रहविद्या के द्वारा, ज्ञान-विज्ञानं के द्वारा नियंत्रण करना, संयम करना ही महिषासुर का दमन है। इस अध्यात्म ज्ञान, ब्रह्म विद्या को ही माता दुर्गा की उपाधि प्राप्त है। यह दुर्गा सिंह पर सवार है, सिंह इसका वाहन है। जब आत्मा इनके ऊपर सवार होकर इनको धर्म के मार्ग पर चलाता है तो यही अलंकारी रूप में शेर की सवारी बन जाती है। दुर्गा के आठ हाथ अष्टांग योग का प्रतीक है, जिनमें यम ,नियम आदि आते है। इसके हाथ में त्रिशूल का अर्थ है- माया रूपी तीन शूल अर्थात सत ,रज और तम इनको एक जगह लेकर अर्थात माया के तीनों गुणों पर अपने नियंत्रण द्वारा ही साधना में सफलता प्राप्त किया जा सकता है। भगवान विष्णु के द्वारा अपना चक्र दिए जाने का अर्थ है- सृष्टि को चलाने वाले ईश्वर ने जीवात्मा को शांति और ज्ञान प्रदान किया जिसके बल पर जीवात्मा ने अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर माता दुर्गा शेर पर सवार होकर महिषासुर का संहार किया ।

प्राचीन वैदिक काल में वर्ष के प्रथम मास का नाम मधु था। मधु तथा माधव ये दोनों महीने वसंत ऋतु के होते थे। इसलिए मधु संवत्सर का सिर था। वृहदारण्यकोनिषद में संवत्सर तथा यज्ञ दोनों को ही प्रजापति कहा गया है। यज्ञ तथा यज्ञीय अश्व का अनेक स्थानों में समीकरण किया गया है। यज्ञ के अश्व का वध होता था। उषा को भी यज्ञीय अश्व का सिर कहा गया है। ऋग्वेद के इंद्र उषा के रथ का ध्वंस करने वाले हैं। छान्दोग्य उपनिषद 1 /3 में आदित्य को देवमधु, उसकी किरणों को भ्रमर तथा दिशाओं को मधुनाड़ी कहा गया है। इंद्र के मेघ से सूर्य आच्छादित हो जाता है, तथा सूर्य के तिरोहित होने पर उसके स्थान पर तड़ित अर्थात वाग्देवी का प्रकाश सूर्य के समान रहता है। देवी द्वारा मधु का यही वध है। कैटभ अथवा केतु भी चंद्रमा अथवा सूर्य ही है, जो अकेतु अर्थात अचेतन को केतु अर्थात चेतनशील करता है। मिश्र की देवी आइसिस भी महर्षि अम्भृण की पुत्री वाक की तरह प्रथमतः एक मानुषी स्त्री थी, पर पीछे उन्होंने अपनी अद्भुत शक्ति से सूर्यदेव रा को वश में कर लिया था। धूम्रलोचन, चंड -मुंड, रक्तबीज, निशुंभ- शुंभ इन सब राक्षसों का वर्णन ऋग्वेद में अंकित वृत्र तथा उसके अनुचरों के वर्णन से मिलता -जुलता है। महिषासुर भी महान असुर सूर्य ही है, जिसकी माता अदिति ने ऋग्वेद में अपने पुत्र आदित्य को महिष अर्थ महान कहकर पुकारा है। महिषासुर का वध भी वृष्टि के द्वारा सूर्य की लोकनाशक प्रवृति के दमन का रूपक है, अन्यथा महिषासुर वध महान आच्छादक वृत्र का ही वध है। विष्णु द्वारा मधू कैटभ का वध संवत्सर द्वारा सूर्य तथा चंद्रमा का नियमवद्ध होना है। वाक ही विष्णु की शक्ति को प्रत्यंचा चढ़ाने वाली है। दुर्गा सप्तशती अध्याय 2 के अनुसार महिषासुर मर्दिनी देवी का जन्म विष्णु अर्थात यज्ञ तथा रुद्र के अर्थात वायु के क्रोध से हुआ। देवी के शरीर में ही सारे देवता हैं तथा देवी ने उन सभी से आयुध लेकर असुर का संहार किया। देवी ने अट्टहास तथा गर्जन के साथ असुर पर प्रहार किया। देवी तथा असुर ने एक दूसरे पर दीप्तिमान अस्त्र फेंके। असुरों के रक्त से बड़ी- बड़ी नदियां बहने लगी। ऋग्वेद का वृत्र भी मारा जाकर जल के रूप में पृथ्वी पर आ गिरा। असुरों के रक्त के विषय में अनेक विद्वानों ने अटकलें लगाई हैं, परंतु मध्य- पूर्व की नील, टाइग्रिस, यूफ्रेट्स आदि बड़ी- बड़ी नदियां बाढ़ के दिनों में मिट्टी के कारण लाल रंग की हो जाती हैं। आज भी भारत की नदियों का वर्षा काल में यही हाल होता है। मिश्र में नील की बाढ़ को असरआ अथवा असुर ओसाइरिस का मृत शरीर अथवा रक्त मानते थे। और यव आदि फसल को काटते समय असरआ के लिए रुदन करते थे, क्योंकि अन्न को असरआ के शरीर का खंड माना जाता था। फसल का काटना भी संवत्सर के आरंभ अर्थात मधू मास में होता था। अतएव यह भी मधुमास के असुर मधु का वध है। कौशिक सूत्र के अनुसार अदिति रूप से आकाश, वाक रूप से अंतरिक्ष तथा सीता- काली अथवा दुर्गा रूप से पृथ्वी पर रहने वाली देवी क्रमशः आकाश, अंतरिक्ष, पृथ्वी अथवा निखिलादि विश्व की मातृशक्ति हैं, जिनसे उद्भिद, चतुष्पद तथा द्विपद सभी की उत्पति हुई है। तथा जो अपनी संतान की रक्षा हेतु हिंस्रक शक्तियों का दमन अर्थात असुरों का संहार करती रहती हैं।

शब्द विज्ञानियों के अनुसार महिषासुर मूल रूप से महिष और असुर शब्दों के संयोग से बना है। महिष का सर्वाधिक प्राचीन अर्थ महा शक्तिमान है। यह मह धातु में इषन प्रत्यय जोड़कर बना है, जिनमें गुरूता का भाव है। गुरूता भाव लिए मह धातु से अनेक शब्द बने हैं। जैसे- महा, महान, महत्व महिमा आदि। महिष भी ऐसे शब्दों में से एक है। कालांतर में महा शक्तिमान राजाओं को भी महिष कहा जाने लगा। रानियों को महिषी कहा जाने लगा। पौराणिक ग्रंथों में महिष का अर्थ भैंसा के रूप में भी किया गया है। महिष का एक अर्थ रंग के आधार पर भैंसा भी हो गया। इस प्रकार महिष का अर्थ महाशक्तिमान, राजा और भैंसा है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार महिषासुर का अर्थ असुरों का राजा है।

असुराति ददाति इति असुरः। अर्थात -जो असु (प्राण) दे, वह असुर (प्राणदाता) है। हिन्दी और संस्कृत का असुर शब्द इसी असु (प्राण) शब्द से निर्मित हुआ है। असुर का निर्माण असु+र से हुआ है। वैदिक कोश के अनुसार असुर शब्द अ+सुर से निर्मित नहीं है, बल्कि असुर शब्द असु में र जुड़ने से बना है। यह सुर (देवता) में अ जुड़कर नहीं बना है। महिषासुर में असुर शब्द राक्षस का नहीं, अपितु प्राण का द्योतक शब्द है। परंतु अब महिषासुर पौराणिक व भारतीय इतिहास का नायक बन चुका है।
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