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बुटकुन बाबा की दीपावली

बुटकुन बाबा की दीपावली

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
बुटकुनबाबा का जन्म ठीक श्रीवामनजयन्ती की दोपहरी में हुआ था । ब्रह्मा की भूल से वे एकदम नाटे कद के हैं, इसलिए बुटकुन नाम ही प्रचलित हो गया और माता-पिता का दिया असली नाम कहीं स्कूली रजिस्टरों में सिमटा पड़ा रहा । ज्यादा पढ़े-लिखे रहते तो शायद उजागर भी हो जाता, किन्तु पढ़े-लिखे “मूर्खों” की दुनिया में भला अनपढ़ों की क्या विसात !
जबकि बुटकुनबाबा अच्छे-अच्छे पढ़ुओं की कान काटने वालों में हैं, इस कारण गांव ही नहीं इलाके से बाहर भी चर्चित रहे हैं हमेशा ।
दुर्योग से इधर महीनों हो गए उनसे मिल नहीं पाया हूँ। दशहरा भी निकल गया । कल रात ही मन बनाया था कि सुबह होते ही उनका दर्शन-लाभ करुँगा, किन्तु आज सुबह से ही किसी न किसी का आना-जाना लगा रहा, जिसके कारण समय पर स्नान-ध्यान सब बाधित रहा ।
उधर ‘अवधिया’ श्रीमतीजी सुबह से ही खफा हैं मुझपर । उनके मैके से खबर आयी है कि अगले दिन दीपावली मनायी जानी चाहिए, फिर हम ‘मगहिया’ बनारसी काका के फेर में क्यों पड़ जाते हैं हरबार !
खफा से खफतान हो चुकी श्रीमतीजी का भेजा तीन-चार ‘चेतावा’ बाहर दालान पर ही आ चुका भड़ेमना के मारफत कि खाना ठंढा हो रहा है...अब दुबारा चूल्हा जलाकर दाल गरम करने की जहमत नहीं मोलने वाली हैं...मिलने-जुलने वालों को टाईम क्यों नहीं दे देते... आजतक ’नारी सम्मान’ वाला गैसवो तो लाके नहीं दिए, जिससे फटाफट रसोई का काम निपट जाए... एकदम से लाइफटाईम नौकरानी समझ लिए हैं...पन्द्रह लाख दहेज देकर माँ-वाप विदा किए थे यही दिन देखने के लिए...।
अब जरा आप ही सोचिए— रिश्वतखोर अफसर घराने की श्रीमतीजी भला क्या जानने गईं गांव-गिरांव के रश्मों-रिवाज़ ! घर कोई साहबी दफ्तर थोड़े जो है कि लोग पर्ची भेज कर, परमीशन लेकर अन्दर आयेंगे। श्रीमतीजी का रोजदिन का उलाहना और फरमान सुनते-सुनते अब करीब-करीब घठिया गया हूँ, किन्तु पन्द्रह साल में उनका पन्द्रह लाख अभी तक वसूल नहीं हुआ है। इस जीवन में वसूल होगा—इसमें भी संदेह ही है।
खैर, किसी तरह मन मारे, करीब ग्यारह बजे जल्दी-जल्दी स्नान-ध्यान निपटाया । रंक-कलाली मार्का दस-बारह कवर निगलकर, मुँह-हाथ धोकर, अभी चौआन के चबूतरे पर बैठा ही था कि ठकर-ठकर लाठी पटकते, उधर से भड़ेमना के बाबूजी आ गए बुटकुनबाबा का बुलावा लेकर ।
आप तो जानते ही हैं कि दशहरे के दिन भी उनके यहाँ नहीं जा पाया था । आधा गाँव एक दिन पहले ही दशहरा मना लिया था। और उसी हिसाब से कल की दीपावली भी गुजर ही गई हमारी । आशा-पुराई देखकर उन्होंने उलाहना सहित बुलावा भेजा है, तो चलो आज मिटा ही लूँ उनका ओरहन—मन ही मन बुदबुदाते हुए चल दिया बुटकुनबाबा की हवेली की ओर।
चारों ओर से चकाचक हवेली की ड्योढ़ी लाँघकर भीतर आँगन में पहुँचा तो देखकर आश्चर्य चकित हो गया— बुटकुनबाबा का घर-आँगन भरी दोपहरी में आसमान के सूरज के साथ ही जगमगा रहा था। अनगिनत दीओं की लौ सूरज से सवाल करती सी लग रही थी कि चाँद की जगह तुम क्यों हो अभी आसमान में...वो टिमटिमाते सितारे कहाँ छिपा रखे हो, जिनसे हमारी गुपचुप बातें होती थी दीपावली की घनेरी रात में !
दीपावली तो कल ही बीत गई न बुटकुनबाबा ! फिर आज अभी दिन-दोपहरी में ये जगमगाते दीए ?
मेरे सवाल पर बुटकुन बाबा एकदम से झुँझलाकर बोले— “ अरे मूरख ! ये सवाल तो तुम्हें देश-दुनिया के नामी-गिरामी पंडितन से करना चाहिए था, जो शीघ्रबोध, मानसागरी, लीलावती से लेकर मकरन्दीया, केतकरीया, ग्रहलाघव, सूर्यसिद्धान्त जैसन मोटे-मोटे पोथी-पुरान गुनना-बाँचना छोड़कर, टी.आर.पी. के चक्कर वाले टी.वी.डिबेट में बाहबाही लूट रहे हैं। हमसे जो पूछ रहे हो, यही सवाल ‘पतरा’ को ‘लतरा’ बना देने वाले व्यापारियों से पूछना चाहिए था । आँखिर क्या कसूर है हम भोले-भाले आस्थावान सनातनी लोगों का जो हर पर्व-त्योहार में उलझा के, नट-भेंड़ुआ वाला तमाशा बना कर रखे हुए हैं ये लोग। आपस में तो कटहवा कुत्ता जैईसन भोंका-भाँकी करते ही रहते हैं, जनता जनार्दन को भी चैन से नहीं रहने देते। आऊ इ जे नया-नया पैदा हुआ है न कुछ दसकों से—अरे वो क्या बोलते हैं—सोशलमीडिया वाला लाटफारम—वाट्सऐप-फेशबुक-यूट्यूब...अब का कहें, इहाँ तो सब कुत्ता कासीए चल गया, हड़ियाँ चाटे वोला कोई रहिए नहीं गया । हमर पुस्तैनी परोहितजी के पोता तो पतरवा रखना भी छोड़ दिए हैं। कहते हैं कि जजमान पतरा दान में देबे नहीं करता है, तो अपन जेबी से खर्चा करें? आ ई मोबइलवा कौन दिन काम देवेगा ? खट से जेवी में से एक बित्ता के मोबाइल निकालते हैं, आऊ वोही में से सबकुछ देख के बतला देते हैं कि कहिआ होली, कहिआ दशहरा, कहिया देवाली है। भोज-विआह के विधान भी वोही में से देख के कराते हैं। वो ही हमर नएका परोहिते जी बोले कि उदयातिथि वाला अमावस्या आजे है, जो रात होवे के पहिलहीं खतमो हो जायेगा। अब तुम्हीं बताओ न— उदयातिथि के खूँटा गड़ले परोहितजी जब कहिए दिए की रात को अमावस्या रहबे नहीं करेगा, तो दीया-बाती कैसे होगा? ये ही सोच के अधरतिया के एवज में दुपहरिए में घर-आँगना सब जगमगा दिए हैं हम...। ”
बुटकुनबाबा की बातों का मेरे पास कोई जवाबी काट नहीं था । किन्तु इनता तो साफ है कि उनकी बातों में भी दम है। भरी दोपहरी में सूर्य को दीपक दिखाने की मसखरी में कुछ तो दम है, जो हम जैसे साधारण जन को सोचने-समझने पर विवश कर रहा है। धर्म को व्यापार बनाए बैठे तथाकथित पंडिताई के मुँह पर जोरदार तमाचा तो जरुर है बुटकुनबाबा की ये दीपावली ।
आँखिर क्या वजह है कि हर सनातनी पर्व-त्योहार में इस तरह का द्वन्द्व छिड़ जा रहा है? क्यों उलझ रहे हैं हम आपस में ही? गणित में दो और दो छः कैसे हो जा रहा है?
चुनाव में हारी हुई पार्टी जैसे बेहयाई से कह देती है कि ई.वी.एम. में गड़बड़ी है। अपनी खामियों को तोपने-ढकने की कवायद में बात-बात में कह दिया जाता है कि विदेशी साजिश है। पड़ोसी आतंकवादियों का हाथ है इसमें…।
अरे गधे के दुम ! कुत्ते की दुम को जरा सीधा करके दिखाओ न । घर के भीतर क्या कम आतंकवादी विदेशपरस्त लोग हैं, जो अदनों काम के लिए बाहर से आतंकवादी और साजिशकर्ता आयेंगे !
आरोग्यदेव धनवन्तरि की पावन सनातनी जयन्ती को बिसार कर, व्यापार-बहुल धनतेरस के नाम पर राहु-केतु-शनि के सामान—लोहा-लक्कड़, स्टील, प्लास्टिक, फाइवर, चाइनावोन बटोर लाने की सलाह से लेकर टट्टी-पखाना करने तक का शुभ मुहूर्त बतलाने वाले धूर्त बहुरूपिए बाबाओं को भला कैसे समझाया जा सकता है कि हमारा सनातन कलंकित हो रहा है, आए दिन की तुम्हारी इन नापाक इरादों और हरकतों से ! अपनी मूर्खता का सिक्का जमाने के चक्कर में पर्व, त्योहार, उत्सव के मूल अर्थ और स्वरूप को भी विकृत कर दिया है इन जाहिलों ने। इससे कहीं अच्छा था अनपढ़-गंवार वो पुस्तैनी पुरोहित। कम से कम दिग्भ्रमित तो नहीं होते थे लोग आज के पढ़ुओं वाले दिशा-निर्देश से। आस्था से खिलवाड़ तो नहीं हो रहा था उसके द्वारा ।
अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने में मशगूल नेता जिस तरह कभी देशहित के नाम पर भी एकमत नहीं हो सकता , उसी भाँति लगता है कि धर्महित में ये विद्वतजन भी शायद ही कभी एकमत हो पावें !
किसी भी धार्मिक सनातनी कृत्य के लिए जिस निर्णयसिन्धु-धर्मसिन्धु आदि सदग्रन्थों का प्रमाण उपस्थित किया जाता है—क्या वह सही रूप से निर्णयग्रन्थ है?
मेरी अल्प बुद्धि को तो ऐसा ही लगता है कि वे सभी ग्रन्थ विभिन्न ऋषियों के विभिन्न सिद्धान्तों और विचारों का संग्रह मात्र हैं, जिनका सम्यक् अध्ययन-मनन-चिन्तन करके, हमें स्वयं, अपने विवेक से निर्णय लेना होता है।
और बुद्धि-विवेक यदि हो ही नहीं या हो भी तो किसी गरिमामय सिंहासन के पायों से बँधी हुई हो, तो भला ऐसे में हम सही और स्वतन्त्र निर्णय कैसे कर पायेंगे—सोचने वाली बात है ।


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