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सिम्पैथेरिया यानी सिम्पैथी का मर्ज़

सिम्पैथेरिया यानी सिम्पैथी का मर्ज़

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
मुझे पक्का यकीन है कि दुनिया के किसी पैथी के किसी डॉक्टर-वैद्य-हकीम को इस अनोखे-अजूबे बीमारी के बारे में कुछ भी पता नहीं होगा। किन्तु चुँकि मुझे भोंचूशास्त्री ने अपने गहन शोध और अनुभव के बाद बतलाया है, इसलिए सोचा कि आप सबको भी बतला ही दूँ।
अपना अनुभव साझा करते हुए शास्त्रीजी ने मुझे बतलाया कि उन्हें जीवन में ऐसे कई मरीजों से पाला पड़ चुका है, जिन्हें सौभाग्य या कहें दुर्भाग्य से और कोई बीमारी नहीं है, परन्तु एक ऐसी बीमारी है, जो दुनिया की सभी बीमारियों पर भारी है और वह है—सिम्पैथेरिया ।
‘रिया’ ग्रूप के अन्य सदस्य— मलेरिया, डायोरिया, मैनोरिया, डिशमैनोरिया, डिपथेरिया, गनोरिया आदि से इसका कहीं दूर-दूर का भी नाता नहीं है। हालाँकि पश्चिमी सभ्यता में उपजी-पनपी गनोरिया जैसी बीमारी की तरह इसे भी लांछित करना उचित नहीं लगता, क्योंकि इस बात का सबूत नहीं मिल पाया है कि हमारे यहाँ पहले ये बीमारी थी या नहीं।
किन्तु इस बात का दावा करने में कोई हर्ज नहीं है कि पश्चिमी दुनिया से साफ-सुथरी होकर आयी, नई सदी की नई बीमारी—लवेरिया प्रजाति के कतिपय विकसित विषाणुओं से ही इसका संक्रमण होता है। ये कितना खतरनाक है, इसके बावत ये कहा जा सकता है कि कोरोना तो कोरेनटाइन करने से काबू में आ सकता है, यानी प्रत्यक्ष सामीप्य ही संक्रमण का मुख्य कारण है, जबकि लवेरिया तो दूरस्थ टेलीफोनिक संक्रमण भी करा देता है। सिम्पैथेरिया के साथ भी ऐसी ही संक्रामक स्थिति है— ऐसा ही मानना है भोंचूशास्त्री का ।
रोग के कारण और लक्षण की सप्रसंग-सप्रमाण व्याख्या करते हुए शास्त्रीजी ने मुझे समझाया कि अंग्रेजी भाषा के 'Sympathy' शब्द का हिन्दी जगत में कई अर्थों में प्रयोग होता है। सहानुभूति और संवेदना तो इसका मूल अर्थ है ही, किन्तु समर्थन, सहमति, अनुकंपा आदि के लिए भी प्रयोग होता ही है, जबकि उर्दू-फारसी-अरबी वाले सिम्पैथी की जगह हमदर्दी जताते हैं।
आप जानते ही हैं कि फास्टफुड खाकर, फास्टलाइफ गुजारने वाली दुनिया में सिम्पैथी का बहुत ही अभाव हो गया है। ऐसा इसलिए कि Sympathy is a similar feeling of Heart. यानी हमदर्दी सीधे दिली मामला है और ये नाचीज दिल आजकल के ज्यादातर लोगों के पास है ही नहीं, क्योंकि लड़कियों ने किसी मनपसन्द लड़के को अपना दिल दे रखा है और लड़कों ने किसी मनपसन्द लड़की को। ऐसे में अपना वाला ‘चेम्बर’ बिलकुल खाली पड़ा है। मजे की बात ये है कि एक छोटे से चेम्बर में एक नहीं, बल्कि कई-कई विपरीतलिंगी दिल समाए हुए हैं। धक्का-मुक्की मची है उन सारे दिलों के बीच ।
ऐसी विकट स्थिति में यदि दुर्भाग्य से किसी को किसी का दिल कभी मिला ही नहीं—गिफ्ट में या शिफ्ट में, तो निश्चित जानिए कि उसे सिम्पैथेरिया की बीमारी लग ही जानी है।
मुझे शास्त्रीजी के इन बातों पर यकीन नहीं हो रहा था। मेरे तर्क-वितर्क से खीझकर शास्त्रीजी ने अगले ही दिन मुझे एक व्यक्ति से मिलवाया, जिसपर वो लम्बे समय से रिसर्च कर रहे थे—सिम्पैथेरिया के बावत।
अगले दिन पहर भर दिन चढ़ते, हम दोनों पहुँच गए पास के गाँव की एक उजड़ी जमींदारी हवेली में। पुरानी जमींदारी तो अब रही नहीं, किन्तु उसकी धीमी आँच अभी भी कहीं-कहीं बुझी अलावों में मिल जाती है। आप जानते ही हैं कि जमींदार लोग हमेशा चाटुकारों से घिरे रहते थे, जैसा कि आजकल नेता लोग घिरे रहते हैं । उनकी ड्योढ़ी के भीतर सिर्फ सेवकों और चाटुकारों को ही प्रवेश मिलता था। आमजन तो बाहर ही नाक रगड़ते-गिड़गिड़ाते रह जाते थे।
दो-तीन ड्योढ़ियाँ और एक आँगन लाँघकर शास्त्रीजी के पीछे-पीछे चलते हुए हम भी पहुँच गए हवेली के भीतर वाले आँगन में, जहाँ एक ओर बड़ी सी चौकी पर चार-पाँच छोटे-बड़े मसनदों के सहारे अधेड़वय जमींदारसाहब तनकर बैठे हुए थे। एक ओर कांसे का हाँड़ीनुमा शटक (गुड़गुड़ा) और दूसरी ओर छोटी सी तिपाई पर पीतल का पानबट्टा रखा हुआ था। एक कमसिन सेविका पान के बीड़े लगा-लगाकर थाल में सजा रही थी। सामने कुर्सियों, बेंचों और मोढ़ों पर अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से लोग बैठे हुए थे।
भोंचूशास्त्रीजी की उस दरबार में कितनी कदर थी, ये इस बात से ही जाहिर हो गया कि जमींदारसाहब खटाक से गद्दी से उठकर आगे आ, चरणों में सिर टिकाकर प्रणाम किए और अदब के साथ चौकी के पास रखे सिंहासननुमा कुर्सी पर आसन दिए।
सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद देते हुए शास्त्रीजी ने तनिक मायूशी से कहा—“ आप अपने स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दे रहे हैं, बहुत तेजी से गिर रहा है... आपके बिना ये हवेली सूनी हो जायेगी...।”
जमींदार साहब ने गर्दन हिलायी—“सो तो मैं भी अनुभव कर रहा हूँ। पिछली वार वनारस वाले वैद्यजी ने भी हिदायत दी थी खान-पान पर ध्यान रखने को। ”
थोड़ी देर में ही जमींदारसाहब के इशारे पर सेविका ने मेवा-मिष्टान्नों से भरी फूल की बड़ी थाली शास्त्रीजी के सामने लाकर रख दी, जिसे ना-ना करते हुए, शास्त्रीजी ने थोड़ी देर में ही साफ कर दिया। साथ होने के कारण मुझे भी एक नायाब थाल चखने का सौभाग्य मिला।
चुँकि शास्त्रीजी की मायूशी पर अन्य लोगों ने भी समर्थन किया था, इसलिए प्रसन्न होकर उन्हें भी यथानुकूल मिष्टान्नादि भेंट किए गए।
कोई आधे घंटे तक हमलोग वहाँ रुके रहे। इस बीच रोग-परीक्षण सम्बन्धी विविध यात्रा-वृत्तान्त और रोग-चर्चा ही मुख्य विषय रहा वार्ता का—कब कहाँ गए, कैसे गए, किसके साथ गए, किससे दिखलाए, क्या कहा... ।
वापस आते समय शास्त्रीजी ने बतलाया कि ये सब माजरा यहाँ रोज-रोज का है। लोग आते हैं, हठे-कठ्ठे मुसलचन्द शरीर को भी ढलता हुआ स्वास्थ्य बताकर, सहानुभूति जताते हैं। सत्यनारायण कथा श्रवण की तरह घंटों स्वास्थ्य-सम्बर्धनी-व्यथा-कथा सुनते हैं और सुस्वादु मिष्टान्नों के साथ-साथ मगहीपान, लखनऊआ जर्दा-किमाम और शटक का लुफ्त लेते हैं। और फिर जल्दी ही मिलने का वचन देकर अपना रास्ता नापते हैं।
जमींदारसाहब की तीन बहुएँ और चार वेटियाँ हैं। ये सबके सब कमो-वेश सिम्पैथेरिया के शिकार हैं। सिम्पैथेरिया चुँकि ‘जेनेटिक’ बीमारियों की श्रेणी में आता है, इस कारण बेटियों पर ज्यादा असर हुआ है। बूढ़ी मालकिन पर सिम्पैथेरिया का सबसे ज्यादा प्रकोप है। उनका जनानी दरबार अलग से लगा रहता है। बाहर की तुलना में कहीं ज्यादा जमघट वहीं होती है। वहाँ का माहौल और भी दर्शनीय हुआ करता है। आचार्य, कर्मकाण्डी, ओझा-गुनी सब अपनी-अपनी रोटियाँ बेखटके सेंकते रहते हैं इस जनानी दरबार में। लखनऊ, वनारस, कलकत्ता, दिल्ली की साल में आठ-दस यात्राएँ होती हैं। सभी तरह के जाँच होते हैं। बीमारी कुछ निकलती नहीं, किन्तु स्वास्थ्य-चिन्ता जाती नहीं। पोंगा पंडितों के साथ-साथ वैद्य-डॉक्टरों की भी चाँदी ही चाँदी है। वे भी अच्छी तरह जान गए हैं कि इन्हें कोई बीमारी न होने की बीमारी है। दरअसल सांगोपांग यात्रा-वृतान्त सुना-सुनाकर जमींदार साहब और उनके परिवार जनों को शान्ति-सुकून मिलता है और सहानुभूति जताने वालों को आवभगत का लाभ मिलता है।
बातें करते-करते भोंचूशास्त्री एकाएक मुस्कुराते हुए, तर्जनी हिलाकर बोले— “ एक दफा मुझे उनके जनानी दरबार में भी जाने का मौका मिला। उस दिन का बाकया देखकर, मुझे पक्का यकीन हो गया , अपने शोध पर मुहर लग गई लगभग । हुआ ये कि बड़ी बहू और मंझली बेटी के बीच अपनी-अपनी सुन्दरता और काबिलियत को लेकर मुँहाठोंठी होते-होते झोंटा-झोंटी शुरु हो गया। बूढ़ी मालकिन के लिए सामने की ये बेअदबी बरदास्त से बाहर की बात थी। तड़ाक से खाट से उठी और नीचे पड़ी चप्पल उठाकर जी भर कुटाई की बहू की। मँझली वेटी ताल देती रही और अन्य वेटियाँ दर्शकदीर्घा में रहना ही भलमनसी समझी। बूढ़ी मालकिन का हाथ रोकना किसी और के वस की बात तो थी नहीं।
धुनाई-कुटाई से आहत बड़ी बहू अपने कमरे में जाकर सुबकने लगी। इधर वरामदे में खाट पर बैठी, हाँफती मालकिन के सिर में महा भृँगराज तेल की मालिश होने लगी। मालिश करती छोटी बहू ने सासुमाँ को धीरज बँधाया— ‘ आप बेमतलब की परेशान हो जाती हैं सासुमाँ ! इन लोगों के चलते अपना सेहत खराब कर लेती हैं। देखिए तो कितनी जोर से धड़क रही है आपकी छाती...कहीं कुछ हो जाए तो...आपकी आँखें मूँदने के बाद भला कौन होगा हमलोगों का देखनहार ! ‘
शाम होते-होते मालकिन की सेहत सच में बिगड़ गई और अगले ही दिन वनारस की यात्रा हो गई छोटी बहू और मंझली बेटी के साथ। ”शास्त्रीजी के श्रीमुख से इतना कुछ सुनने-देखने-जानने के बाद मुझे तो पक्का यकीन हो गया इस घातक बीमारी के बारे में। आशा है अब आपको भी समझ आ गया होगा— शास्त्रीजी के शोध के अनुसार इसे ही सिम्पैथेरिया का मर्ज़ कहते हैं।
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