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बहुत उड़ानों में माहिर भी

बहुत उड़ानों में माहिर भी

डॉ रामकृष्ण मिश्र
जब खुद से ही हारे हैं।
कौन कहे उनकी बाते
जिनके पथ में अंगारे हैं।।


पथ में पग के तलवे छिलते
मन करता आना-कानी
उच्चावच भावों का कुनवाँ
भी करता है मनमानी।
फिर भी दृढ प्रतिज्ञ साहस की
सीमा जब खुल जाती है
कदमों में आ कर बिछ जाते
फूलों जैसे तारे हैं।।


चारो दिशा डराती सी लगतीं
मानो विष पायी हैं
एक ओर है गहन कूप तो
पीछे दुर्गम खाई है।
धरती भी जब तपे ,लगे
बचने की आशा क्षीण हुई।
तभी अदृश्य शक्ति की बाहें
ज्यों जगदीश पधारे हैं।।


शत्रु बोध जीवन का भ्रम है
हो सकता शायद हो भी,
दुनिया एक तमाशा भर है
सच -सा लग सकता जो भी।
अमित काल की संरचना में
वर्तमान सागर का जल
बाहर - बाहर भले मनोरम
भीतर - भीतर खारे हैं।।

रामकृष्ण
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