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पाँव डगमग से मगर चलते रहे।

पाँव डगमग से मगर चलते रहे।

डॉ रामकृष्ण मिश्र
पाँव डगमग से मगर चलते रहे।
कुछ न कुछ तो लोग थे कहते रहे। ।।

समय कुसमय आँधियाँ आती रहीं।
मुस्कुराते थपेड़े सहते रहे।।

बगूले भी कम नहीं शैतान थे।
बरगदों से मौन बस अड़ते रहे।।

चाँदनी की चमक का अब क्या करूँ।
आज तक तो धूप से लड़ते रहे।।

सुलगती संभावनाओं के लिए।
अपरिचित आवेग से मिलते रहे।।

प्रश्न अब यह नहीं कैसी है सजा। 
आस्थाओं की कथा पढ़ते रहे।।
 
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