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भारत की भी एक राष्ट्रभाषा अवश्य होनी चाहिए : न्यायमूर्ति रवि रंजन

भारत की भी एक राष्ट्रभाषा अवश्य होनी चाहिए : न्यायमूर्ति रवि रंजन

  • साहित्य सम्मेलन के दो दिवसीय १०६ठे स्थापना दिवस समारोह एवं ४३वें महाधिवेशन का हुआ उद्घाटन,
  • सम्मेलन की उच्च उपाधि 'विद्या वारिधि' से सम्मानित हुए पूर्व मुख्य न्यायाधीश, वरिष्ठ लेखिका किरण सिंह, अम्बरीष कान्त तथा पुनीता कुमारी श्रीवास्तव की पुस्तकों और 'सम्मेलन साहित्य' के विशेषांक का हुआ लोकार्पण, संध्या में आयोजित हुआ भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रम ।

पटना, १९ अक्टूबर। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अप्रतिम योगदान है। इसके १०५ वर्ष का इतिहास अत्यंत गौरवशाली है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, महापंडित राहूल सांकृत्यायन जैसी महान विभूतियों ने इसे अपना रक्त देकर सिंचित और पल्लवित-पुष्पित किया।
यह बातें शनिवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दो दिवसीय १०६ठे स्थापना दिवस समारोह का उद्घाटन करते हुए, झारखण्ड उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और महानदी जल-विवाद न्यायाधिकरण के सदस्य न्यायमूर्ति रवि रंजन ने कही। उन्होंने कहा कि दुनिया के अन्य राष्ट्रों की भाँति भारत की भी कोई एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। बहुभाषी-राष्ट्र होने का यह अर्थ नहीं है कि उसकी एक राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। देश को एक सूत्र में बांधने के लिए संवाद की कोई एक भाषा नितान्त आवश्यक है।
अपने अध्यक्षीय संबोधन में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि भारत की गौरव-वृद्धि में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का उच्च अवदान रहा है। यह गौरव का विषय है कि देश के प्रथम राष्ट्रपति ही नहीं बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डा श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह, वीरचंद पटेल, डा लक्ष्मी नारायण सुधांशु जैसे महापुरुष सम्मेलन के कार्यकर्ता और हिन्दी प्रचारक थे। डा सुलभ ने कहा कि यह बिहार के लिए यह भी गौरव का विषय है की स्वतंत्र भारत में बिहार प्रथम प्रदेश है, जिसने हिन्दी को अपनी राजभाषा बनायी। उन्होंने कहा कि बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के स्वर में पहली बार बिहार ही हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने का संघर्ष आरंभ किया है, जिसे पूरे देश का समर्थन प्राप्त हो रहा है।
इस अवसर पर डा सुलभ ने न्यायमूर्ति श्री रवि रंजन को सम्मेलन की उच्च मानद उपाधि 'विद्या वारिधि' से विभूषित किया। महात्मा गांधी द्वारा स्थापित 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा (महाराष्ट्र) के अध्यक्ष और विश्रुत विद्वान प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित को सम्मेलन की सर्वोच्च मानद उपाधि 'विद्यावाचस्पति' प्रदान की गयी। उद्घाटन-समारोह में पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेंद्र प्रसाद ने भी अपने विचार व्यक्त किए। अतिथियों का स्वागत सम्मेलंके वरीय उपाध्यक्ष जियालाल आर्य ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन सम्मेलन के ९२ वर्षीय विद्वान प्रधानमंत्री डा शिव वंश पाण्डेय ने किया। मंच-संचालन डा शंकर प्रसाद ने किया।
इस अवसर पर साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित कथाकार अम्बरीष कांत के उपन्यास 'ख़त मिला नहीं' , युवा-लेखिका पुनीता कुमारी श्रीवास्तव के उपन्यास 'सिद्धार्थ की सारंगी', वरिष्ठ लेखिका किरण सिंह की पुस्तक 'लय की लहरों पर' तथा सम्मेलन की पत्रिका 'सम्मेलन साहित्य' के महाधिवेशन विशेषांक का लोकार्पण भी किया गया। इस सत्र के संयोजक थे कुमार अनुपम ।


प्रथम वैचारिक सत्र
उद्घाटन-समारोह के बाद प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित की अध्यक्षता में, महाधिवेशन का प्रथम वैचारिक सत्र आरंभ हुआ, जिसका विषय 'भारत की राष्ट्रभाषा और अन्य भारतीय भाषाओं पर इसका प्रभाव" रखा गया था। सत्र के मुख्य वक्ता और मेरठ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो रवींद्र कुमार ने कहा कि हिन्दी भारतीय दर्शन और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने धर्म-सुधार आंदोलन में इसी भाषा को अपनाया था। सरदार वल्लभ भाई पटेल, लोकमान्य तिलक, सुभाष चंद्र बोस जैसे अहिंदी भाषी महापुरुषों ने भी इस भाषा के महत्त्व को समझा था और उसके प्रचार पर बल दिया। हिन्दी को रोज़गार से जोड़ा जाना चाहिए।
सत्राध्यक्ष प्रो दीक्षित ने कहा कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने से देश की अनय किसी भी भाषा पर कोई दुष्प्रभाव नही होगा। देश में कई अनय भाषाएँ हैं, जिनका नाम सविधान की अष्टम अनुसूची नहीं हाई, फिर भी उनका अस्तित्व पूर्व की भाँति बना हुआ है और अनेक विकसित भी हो रही है।
अतिथियों का स्वागत सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा उपेंद्रनाथ पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन स्वागत समिति के उपाध्यक्ष पद्मश्री विमल जैन ने किया। सत्र का संचालन सम्मेलन के प्रचार मंत्री डा ध्रुव कुमार ने किया। इस सत्र के संयोजक थे डा मनोज गोवर्द्धनपुरी।


दूसरा वैचारिक सत्र
भोजनावकाश के पश्चात दूसरा सत्र आरंभ हुआ, जिसका विषय था 'महाप्राण निराला की काव्य-दृष्टि'। कोलकाता के विद्वान हिन्दी-सेवी और पत्रकार कुँवर वीर सिंह मार्तण्ड की अध्यक्षता में आहूत हुए इस सत्र के मुख्य वक्ता और अनुग्रह नारायण महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो कलानाथ मिश्र ने कहा कि महाप्राण निराला की रचनाओं में दिव्य-चेतना है। 'राम की शक्ति पूजा में' व्यक्तिगत अनुभूति को समष्टिगत अनुभूति से जोड़ने का प्रयास किया गया है। निराला के काव्य में विद्रोह के स्वर भी हैं, किंतु वे आम आदमी और साहित्य के कल्याण की थाती हैं।
नव नालंदा महाविहार, नालंदा के आचार्य डा अनुराग शर्मा ने कहा कि नाम के अनुरूप ही निराला का व्यक्तित्व निराला था। क्रांति और विद्रोह से वह समाज में व्याप्त असमानता को दूर करना चाहते हैं। मंच का संचालन डा अर्चना त्रिपाठी ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन स्वागत समिति के उपाध्यक्ष पारिजात सौरभ ने किया। सत्र की संयोजिका थी डा सुषमा कुमारी।


तीसरा वैचारिक-सत्र
तीसरा वैचारिक सत्र, जिसका विषय 'रामवृक्ष बेनीपुरी की भाव-भाषा' था, बेनीपुरी जी के अनेक उज्ज्वल-पक्ष को सामने लेकर आया। सम्मेलन के प्रधानमंत्री डा शिव वंश पाण्डेय की अध्यक्षता में आहूत इस सत्र के मुख्य वक्ता और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी बच्चा ठाकुर ने कहा कि भाव-भावनाओं के विपुल ऊर्जावान बेनीपुरी जी ने कई क्षेत्रों मेन महत्त्वपूर्ण अवदान कर्ते हुए एक वरेण्य साहित्यकार हो गए। उन्होंने अपनी महान कृति 'गेहूं और गुलाब' के माध्यम से पाठकों पर गहरा प्रभाव डाला।
पूर्णिया की वरिष्ठ साहित्यकार डा निरुपमा राय, डा सुमेधा पाठक तथा सागरिका राय ने भी विशिष्ट वक्ता के रूप में अपने विचार व्यक्त किए। स्वागत सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा ने, धन्यवाद-ज्ञापन सम्मेलन के पुस्तकालय मंत्री ई अशोक कुमार ने तथा मंच संचालन सम्मेलन की संगठन मंत्री डा शालिनी पाण्डेय ने किया। इस सत्र के संयोजक थे स्वागत समिति के उपाध्यक्ष डा आर प्रवेश।


सांस्कृतिक कार्यक्रम आज के तीनों वैचारिक सत्रों के बाद संध्या में, सम्मेलन के कला-विभाग द्वारा, अतिथियों एवं प्रतिनिधियों के सम्मान में एक भव्य सांस्कृतिक-कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया गया। सबसे पहले निराला की चर्चित काव्य-रचना 'राम की शक्ति पूजा' पर नृत्य-नाटिका का प्रदर्शन किया गया, जिसका निर्देशन सम्मेलन की कलामंत्री डा पल्लवी विश्वास ने किया था। इसके पश्चात 'हमन है इश्क़ मस्ताना' शीर्षक से डा शंकर प्रसाद का गायन हुआ। तीसरी प्रस्तुति सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नाटक 'हवालात' के रूप में हुई, जिसका निर्देशन अमित राज ने तथा मार्ग-दर्शन सुप्रसिद्ध रंगकर्मी अभय सिन्हा ने किया। अंतिम प्रस्तुति बिहार की पारंपरिक लोक-नृत्य 'कजरी' और 'मुखौटा' नृत्य के रूप में हुई, जिनका नृत्य-निर्देशन सोमा आनद ने किया। इन प्रस्तुतियों ने सभी प्रतिनिधियों के मन का पर्याप्त रंजन किया। सभागार बारंबार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा।
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