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इश्क बेहिसाब

इश्क बेहिसाब

खाना खाया अधिक जब ,
मुझको तो कब्ज हो गया ।
किया इश्क बेहिसाब जब ,
मेरा प्यारा इश्क खो गया ।।
जबसे लग गई गुड़ में चींटी ,
तब संभल इश्क करता हूॅं ।
फूलने लगा जब पेट ये मेरा ,
बेहिसाब इश्क से डरता हूॅं ।।
कायम रहे उतना ही इश्क ,
जितना कहता ये जमाना है ।
देख लो तुम इसे आजमाकर ,
मुझे क्या अब आजममाना है ।।
इश्क सदा रहे यह उतना ही ,
जितना चलता रहे ये बराबर ।
इश्क में तब आती यह कटुता ,
जब मिलता है उबड़-खाबड़ ।।
बोझ उठाओ उतना सिर पर ,
जिसे मंजिल तक ये पहुॅंचाऍं ।
उतना अधिक भार न उचित ,
बोझ लिए हम ही गिर जाऍं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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