अर्धांगिनी
संस्कारी पिता की वह नाजुक कली है,बड़े नाज - नखरों से पली व बढ़ी है।
संस्कारों की सरिता में वो ढली है,
सदा मर्यादा की सीमा में चली है।
जब मायका को छोड़ ससुराल वो चली,
कर्तव्यों का बोझ कंधों पर ले चली।
सास - ससुर की बन गई वह लाडली,
घर की जिम्मेदारियां अपने कंधे पर उठा ली।
जिम्मेवारियों की खातिर नौकरी में आई ,
सत्य, निष्ठा से उसने अपनी ड्यूटी निभाई।
सुवित्री स्वरूपा मेरी जिंदगी में आई,
प्रेम की अमृत धारा मुझ पर बरसाई।
लक्ष्मी स्वरूपा घर में धन वो लाई,
सरस्वती स्वरूपा शिक्षा घर वो लाई।
अपने बच्चों को वो शिक्षित बनाई,
माता के धरम को बखूबी निभाई।
बहू के धरम को भी खूब निभाया,
सास-ससुर को तीर्थयात्रा कराया ।
पतिव्रता का धरम भी खूब निभाया,
अपने पति का मान-सम्मान बढ़ाया।
अपने सुखों का न रखा ख्याल कभी,
धैर्य को अपने जीवन का ढाल बनाया।
सांमजस्म, संघर्ष के बल पर ही उसने,
अपने दाम्पत्य जीवन को सुखमय बनाया।
सुरेन्द्र कुमार रंजन
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