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मैं एक दीमक लगी किताब

मैं एक दीमक लगी किताब

कौन पढ़ेगा मेरी कहानी,
जब सब मुझ से हैं अनजान।
तितली उड़ती, जुगनू चमकता,
मेरी बातें सुनता कौन?


मैं एक किताब हूँ, पुराने जमाने की,
धूल में सनी पड़ी, कोने में छिपी।
मेरे पन्ने पीले पड़ गए,
शब्द धीरे-धीरे मिट गए।


दीमकें ही साक्षी हैं मेरी,
चिथड़े-चिथड़े कर रही मेरी कहानी।
कोई नहीं है समझने वाला,
मैं हूँ अकेली, अंधेरे में डूबी।


तितलियां मुझ पर नहीं बैठीं कभी,
अपने रंगीन पंखों से छूती नहीं।
जुगनू की रोशनी ने मुझको देखा नहीं,
अपने जगमगाते नूर से भी सींचा नहीं।


फूलों पर मंडराती तितलियां देखी हैं,
अपनी खुशी के गीत गाती हैं।
जुगनू रात के अंधेरे में चमकते हैं,
अपनी रोशनी से राह दिखाते हैं।


लेकिन मैं यहाँ पड़ी हूँ, एकांत में,
कोई नहीं पूछता, मेरी कहानी क्या है?
सिर्फ दीमकें ही आती हैं रोज़,
मेरे पन्नों को चबाती और खाती हैं।


पन्ने पलटती है उम्र की किताब,
हर पन्ने पर एक नया अज़ाब।
कोई नहीं है साथ चलने वाला,
मैं हूँ अकेली, अंधेरे में डूबी।


शायद मेरी कहानी ही ऐसी है,
जो सिर्फ दीमकों को ही रास आती है।
तितलियों- जुगनूओ की तो रंगीन दुनिया है,
मुझे तो सिर्फ दीमकों की ही चाहत है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" 
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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