संस्कृति का विद्रूप (मखौल)
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
राजनीति की अधोगति तो हो ही चुकी है आखिरी हद तक;संस्कृति को भी लोग कहीं की भी नहीं छोड़ने पर यानी उसकी भी सब प्रकार से भद्द करने पर तुले हुए हैं।
यहाँ नाम के साथ उपपद (अल्ल , कुलनाम,surname) के प्रयोग का संदर्भ उद्दिष्ट है। किसी भी शब्द का प्रयोग नाम के उपपद के रूप में बिना समझे-बूझे या किसी मूढ व्यक्ति के द्वारा किए गए प्रयोग के अंधानुकरण में करना कथमपि अनुमोदनीय नहीं।
आजकल 'भारती ', 'सरस्वती '-जैसे शब्दों का प्रयोग सिंह-पाठक-प्रसादादि की बजाय अल्ल (surname)के रूप में बहुशः करने लगे हैं। यह प्रवृत्ति,मेरी दृष्टि में,अत्यंत दूषित है और सच पूछियो तो ,प्रयोक्ता की घोर नासमझी का इजहार है।
ज्ञातव्य है कि उपपद के रूप में व्यवहार्य'भारती ' , 'सरस्वती'आदि शब्द शास्त्रसिद्ध-पारिभाषिक हैं और संन्यास-नामों के उपपद के रूप में परम्परा-प्रथित हैं। संन्यासियों के दस उपपद शास्त्र-सिद्ध रूप में मान्य हैं। तत्संबंधित प्रसिद्ध श्लोक है--
"तीर्थाश्रमवनारण्यगिरिपर्वतसागराः ।
पुरी सरस्वती चैव भारती च दश क्रमात्। ।"अर्थात् संन्यासियों के दस उपपद हैं--तीर्थ,आश्रम,वन,अरण्य,गिरि,पर्वत,सागर,पुरी, सरस्वती और भारती।
समस्या यह है कि किसी के नाम का उपपद 'भारती 'या 'सरस्वती 'हो और उससे व्यक्तिगत परिचय न हो,तो उसे कोई भ्रमवश संन्यासी ही समझ लेगा। गौरांग महाप्रभु चैतन्यदेव के संन्यास-गुरु थे केशव भारती। स्वनामधन्य करपात्री जी का संन्यास-नाम था 'हरिहरानन्द सरस्वती ', वेदान्त-दर्शन के विश्रुत ग्रन्थ "पञ्चदशी "के रचयिता महामहिम माधवाचार्य का संन्यास-नाम 'विद्यारण्य स्वामी 'था। अत्यधिक समुपबृंहण अनावश्यक है।
दिक्कत यह है कि पढ़े-लिखे होने का मतलब अब सिर्फ डिग्रीधारी होना रह गया है। अध्ययन-स्वाध्याय से नितान्त विरत जीवनचर्या रह जाती है तथाकथित डिग्रीधारियों की। स्वाध्याय की लौ आखिरी साँस तक प्रज्वलित रखने का आदर्श रहा है भारतीय संस्कृति का।
अब और कुछ कहना व्यर्थ है। सच कड़वा होता है और ज्यादा उद्घाटन से विरोध में तथाकथित लोगों के खड्गहस्त होने का खतरा है। कुछ लोग कुलनाम (उपपद)के रूप में 'सनातनी'और 'हिन्दू '--जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं। इस नादान प्रवृत्ति का स्रोत जगजाहिर है,कहने की जरुरत नहीं। पागलपन का यह दौर किस कीचड़भरे घाट तक इन सिरफिरों को घसीटेगा,ईश्वर ही जाने।
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