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सर्वोच्च न्यायालय के लाइब्रेरी में रखी गई बदली हुई न्याय की मूर्ति

सर्वोच्च न्यायालय के लाइब्रेरी में रखी गई बदली हुई न्याय की मूर्ति

दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |

न्याय की मूर्ति जिसके आँख पर पट्टी बंधी है और बाँए हाथ में तराजू एवं दायें हाथ में तलवार है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के आदेश पर सर्वोच्च न्यायालय के लाइब्रेरी में जो मूर्ति रखी गई है, उस मूर्ति के आंख से पट्टी हटा दिया गया है यानि मूर्ति की आँख खुली हुई है और बाएं हाथ से तराजू को हटाकर उसे दाएं हाथ में कर दिया गया है और बाएं हाथ में संविधान दे दिया गया है । इस प्रकार न्याय की मूर्ति में परिवर्तन कर आंख से पट्टी हटाया गया, बाएं हाथ में तराजू की जगह संविधान दिया गया और दाएं हाथ से तलवार हटाकर तराजू दिया गया है।


सूत्रो के अनुसार, बुधवार को न्याय की मूर्ति की प्रतिमा सर्वोच्च न्यायालय के लाइब्रेरी में लगाई गई है, उस प्रतिमा की आंखों से पट्टी और हाथ से तलवार हटा हुआ है और तराजू बाएं हाथ से दाएं हाथ में और बाएं हाथ में संविधान है।

न्याय की मूर्ति का आंख बंद रहने पर लोग कहते हैं कि कानून अंधा है, लेकिन लाइब्रेरी में लगाई गई प्रतिमा से यह संदेश निश्चित रूप में जायेगा कि कानून अंधा नहीं है और न दंड का प्रतीक है।


मुख्य न्यायाधीश का मानना है कि कानून कभी अंधा नहीं होता है और यह सभी को समान रूप से देखता है। लेकिन भारत को ब्रिटिश विरासत से बाहर निकलकर आगे बढ़ना चाहिए। न्याय की मूर्ति का स्वरूप बदला जाना चाहिए। प्रतिमा के एक हाथ में संविधान होना चाहिए, न कि तलवार, संविधान रहने से यह संदेश जाएगा कि अदालत संविधान के अनुसार न्याय करती है। तलवार हिंसा का प्रतीक है,जबकि अदालतें संवैधानिक कानूनों के अनुसार न्याय करती हैं।

जानकारी के अनुसार, जिस न्याय की मूर्ति को हमलोग अदालतों में देखते हैं वह मूर्ति (प्रतिमा) 17 वीं शताब्दी में लाई गई यूनान की देवी की प्रतिमा है, जिसका नाम जस्टिया है और उन्हीं के नाम से 'जस्टिस' शब्द आया है। उनकी आंखों पर बंधी पट्टी दिखाती है कि न्याय हमेशा निष्पक्ष होना चाहिए। 17वीं शताब्दी में एक अंग्रेज अफसर पहली बार इस मूर्ति को भारत लाए थे। यह अफसर एक न्यायालय अधिकारी थे। 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज के दौरान न्याय की देवी की मूर्ति का सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल होने लगा।
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