माटी कहता कुम्हार से ,
तू रोंध रहा आज मोय ।मैं भी माटी तू भी माटी ,
तुझे भी रोंधे होंगे कोय ।।
नहीं तुम्हीं ये कुम्हार हो ,
कुम्हार भी होते हैं दोय ।
कर रहे मर्दन मेरा जैसे ,
ऊपर वे मर्दे होंगे तोय ।।
सिर चढ़ा तू लाया मुझे ,
पैर से रहा मुझे तू रोंध ।
नव पात्र बनाता मुझसे ,
करता है नव तू शोध ।।
मुझे बदला पात्र में तू ,
स्वयं बन तू आया पात्र ।
हम तुम में अंतर इतना ,
सजीव निर्जीव मात्र ।।
किंतु हूॅं मैं तुमसे बड़ा ,
मैं ही हूॅं तेरा आधार ।
रहते चलते खाते तुम ,
घर द्वार और बधार ।।
आज रोंध रहे मुझको ,
तेरे अपने रोंधेंगे तोय ।
कोउ न तब बचाएगा ,
आ मिलेगा तब मोय ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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