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इस रंग बदलती दुनिया में,

इस रंग बदलती दुनिया में,

घुटन सा हो रहा है।
मुंह और आंखें ही नहीं,
अब तो दिल भी रो रहा है।।
जिधर देखो उधर,
बस मतलब तक यारी है।
लुट रहे हैं सभी,
आज मेरी तो कल तेरी बारी है।।
अब रहा नहीं धर्म,
और ना रहा ईमान।
यह जगत अब बसेरा ना रहा,
अब हो गया श्मशान।।
यहाँ चारों तरफ,
केवल गिद्ध मड़रा रहे हैं।
अब लाशों को कौन कहे,
ये तो जिन्दों को खा रहे हैं।।
हद तो तब है जब,
इनके पेट में सब समा जा रहा है।
ये डकारते भी नहीं हैं,
अंदर सब कुछ पचते जा रहा है।।
मुखौटा जितना ही समतल है,
अंदर उतनी ही खाई है।
किस किस मौत पर आंसू बहाओगे,
अब तो महामारी सी आई है।। 
 जय प्रकाश कुवंर
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