भक्ति के डगमगाते कदम
सुरेन्द्र कुमार रंजनमां कल्याणी, वैठी क्यों मुस्करा रही है,
देखो तुम्हारे भक्तन आँसू बहा रहे हैं।
अब तो आसक्ति कैसी, भक्ति भी मूर्खता है,
धर्म की जगह अधर्म करो, यह कौन देखता है।
पैरवी बना सहारा और घूंस आसरा है.
प्रत्येक के लिए बस ये दो ही देवता हैं।
घर-घर में धार्मिक पुस्तक मातम मना रही है,
देखो तुम्हारे भक्तन आंसू बहा रहे हैं।'
पूजा करा रहे हैं, बस रोटियों की खातिर ,
सम्मान छोड़ पुजारी व्यभिचारी कहा रहे हैं।
नित्य नशा कर रहे वे ,दावत उड़ा रहे हैं,
घर पर ही बैठे- बैठे महफिल सजा रहे हैं।
पतवारहीन नैया मझधार जा रही है,
देखो तुम्हारे भक्तन आंसू बहा रहे हैं।
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