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भारतीय दर्शन शाश्वत, सत्य, सनातन और अपौरुषेय है

भारतीय दर्शन शाश्वत, सत्य, सनातन और अपौरुषेय है

लेखक: अवधेश झा

भारतीय दर्शन आत्मा की तरह नित्य, सत्य और सनातन है तथा समस्त दर्शन शास्त्र का मूल उद्देश्य विभिन्न माध्यमों से ब्रह्म के स्वरूप का दर्शन करना ही है। ब्रह्म स्वयं वेद को प्रकट किया है तथा ब्रह्म स्थिति को प्राप्त हमारे महान ऋषियों ने उसके स्वरूप का दर्शन किया है। यह परंपरा युगों से चली आ रही है। महर्षि वेद व्यास स्वयं वेदों का संकलन किए हैं। जबकि वेद के कई मंत्रों के द्रष्टा महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को वेदों की शिक्षा प्रदान किए थे। श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से स्पष्ट कहा है कि, "अर्जुन, जो आत्मा का ज्ञान मैं तुम्हें दे रहा हूं, वह ज्ञान तुमसे पहले मैंने सूर्य को दिया था।" श्रीमद्भागवत गीता समस्त वेदांत दर्शन का सार है और सूर्य ही इस सृष्टि का प्रारब्ध और प्रारंभ है तथा उन्हें भी सृष्टि के आरंभ से पूर्व परब्रह्म श्रीकृष्ण ने वेदों की शिक्षा दी थी। इस तरह से वेद परमात्मा का वाणी है। जिसे ऋषियों ने आमजनों की सहजता के लिए वेद से उपनिषद, महापुराण, महाकाव्यों आदि में विस्तार किया है।
जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय पटना) ने स्पष्ट करते हुए कहा कि " भारतीय दर्शन शास्त्र अपौरुषेय है, इसे किसी पुरुष ने नहीं लिखा या व्यक्त किया है। यह ब्रह्म द्वारा ही प्रकट किया गया है। इसलिए, इसे श्रुति कहा जाता है। हमारे जो दर्शन शास्त्री थे, वे मंत्र द्रष्टा थे, उन्होंने उस मंत्र के स्वरूप को देखकर जो उन्हें अनुभूति हुआ, उसे उन्होंने व्यक्त किया है। यहां तक कि ब्रह्म स्वयं विभिन्न अवतार लेकर वेद की मर्यादा के अनुरूप ही धर्म, कर्म और आचरण किए हैं तथा वैदिक संस्कृति को ही पुर्नस्थापित किए है।
भारतीय दर्शन शास्त्र देश और काल से परे है। यह कालातीत है तथा सम्पूर्ण ब्रह्मांड का महाविज्ञान का रहस्य भी है। जबकि, अन्य दर्शन शास्त्र पौरूषेय है। इसलिए, उसमें देश और काल का निर्धारण है जोकि एक काल खंड से दूसरे काल खंड तक ही है।"
वास्तव में, वेद एक महासागर की तरह है। जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रहस्य व्याप्त है। गुरु द्रोणाचार्य के पिता ऋषि भारद्वाज जोकि ऋषि वृहस्पति के पुत्र और महर्षि अंगिरा के पौत्र थे तथा ब्रह्मा के परपौत्र थे। ऋषि भारद्वाज ने एक बार ब्रह्मा जी से कहा कि, "मुझे सम्पूर्ण वेदों को अध्ययन करने का अवसर दीजिए"। ब्रह्मा तथास्तु कहते हुए उन्हें प्रयाप्त अवसर दिया और इस तरह से भारद्वाज ऋषि तीन सौ वर्षों तक अध्ययन करते रहे। उसके उपरांत ब्रह्मा जी आए और पूछे, भारद्वाज कितना अध्ययन पूर्ण हुआ है? उत्तर में, ऋषि भारद्वाज ने कहा, परम पिता अभी केवल वेद के सागर से गागर इतना अध्ययन कर पाया हूं। जबकि कालांतर में ऋषि भारद्वाज ऋग्वेद के छठे मंडल के 765 मंत्रो के तथा अथर्ववेद के 23 मंत्रों के द्रष्टा थे और वैदिक ऋषियों में उनका ऊंचा स्थान था। उनके पितामह महर्षि अंगिरा ऋग्वेद के कई मंत्रों के द्रष्टा, ब्रह्मविद्या के ज्ञाता तथा अग्नि को उत्पन करने वाले और धर्म और राज्य व्यवस्था को सुचारू चलाने के लिए, इन्हें प्रजापति भी कहा जाता था। इससे स्पष्ट है कि वेद की सम्पूर्ण शिक्षा किसी काल खंड में ग्रहण करना संभव नहीं है। यह कालातीत है इसे ग्रहण करने के लिए भी आत्म (ब्रह्म) स्थिति आवश्यक है।
इस तरह से भारतीय दर्शन का अनादि काल तथा कालातीत इतिहास है। यहां के दर्शन शास्त्र सार्वभौमिक, शाश्वत, सनातन और सर्वव्याप्त है। यह कोई व्यक्ति, देश और काल विशेष नहीं है। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधि करता है। वेद उसका सत्य प्रमाण है तथा सम्पूर्ण दर्शन शास्त्र अपने सम्पूर्ण प्रमाण के साथ उपलब्ध है। जोकि और किसी भी दर्शन में उपलब्ध नहीं है। सम्पूर्ण विश्व में राजा जनक जोकि श्रीराम की धर्मपत्नी सीता के पिता थे, अपने कुल में तीसवां जनक हुए जो दर्शन शास्त्र पर विश्व का पहला संवाद करवाया था। महर्षि यज्ञवलक्य जो की वैदिक ऋषियों में एक थे तथा वेद के कई मंत्रों के द्रष्टा थे, उन्होंने ब्रह्म दर्शन पर जनक तथा अन्य ऋषियों के साथ संवाद और शास्त्रार्थ किए थे। सार्वजनिक तौर पर यह विश्व की प्रथम महासभा थी। लेकिन, व्यक्तिगत रूप से गुरु शिष्य का दर्शन शास्त्र पर संवाद तथा पिता - पुत्र का दर्शन शास्त्र पर संवाद की एक परंपरागत श्रृंखला युगों से चली आ रही है। श्रीहरि से शिव और ब्रह्मा वेद प्राप्त किए तथा उसका ज्ञान व रहस्य उद्घाटित हुआ। तदोपरांत, ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की। इस तरह से विष्णु सृष्टि के संचालक और शिव संहारक हुए। यह सृष्टि वेद के बीज से अंकुरित, स्फुटित, पल्लवित, पुष्पित और फलित है। प्रलय काल में भी वेद ब्रह्म में सुप्त रहता है। उत्पति काल में उसी ब्रह्म से प्रकट/उदित होकर, स्थिति और प्रलय तक संचालन करता है।
वेद ब्रह्म ज्ञान है तथा सृष्टि के आधार का प्रथम महाविज्ञान है। वेद में कर्मकांड, उपासना और ज्ञान है। जिसमें मंत्र या संहिता (जिसमें महान ऋषियों का रहस्योद्घाटन है), ब्राह्मण - धार्मिक अनुष्ठानों (यज्ञों) और समारोहों का उचित प्रदर्शन, आरण्यक (वन एवं जीव, वनस्पति आदि) और उपनिषद (दार्शनिक चिंतन - आत्मा (ब्रह्म) के बारे में विचार) आदि है। वेद में कर्म काण्ड और उपासना आत्मिक यात्रा और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि की आरंभ दर्शाता है, वहीं वेदांत और भगवद गीता में आध्यात्मिक दृष्टि से ब्रह्म (आत्मा) का पूरा वैभव दर्शाता है। वेद जीवन के पारलौकिक लक्ष्य प्राप्त करने साधन तथा अवांछनीय से बचकर इच्छित लक्ष्य प्राप्त करने का दिव्य साधन है। वेद ही सर्वमान्य, वास्तविक प्रमाणित ग्रंथ हैं, जिसका कोई लेखक नहीं है तथा जो सनातन धर्म एवं ब्रह्म का प्रतिपादन करता है। वेद की यात्रा क्रम में परब्रह्म से सर्वप्रथम नाद आया, फिर ॐ (ओंकार) और फिर मंत्रोपनिषद। इस तरह से ब्रह्मा ने अक्षरों की रचना की और परब्रह्म से प्रेरित उनके मुख से वेद प्रकट हुआ। यह वेद उनके पुत्रों को पढ़ाया गया तथा इस तरह से यह परंपरा युगों - युगों से चली आ रही है। महर्षि व्यास जो परब्रह्म विष्णु के ही अवतार हैं वेदों को पुनर्व्यवस्थित किए। इस तरह से युगांत में जल प्रलय के बाद पुनः श्रीहरि ब्रह्म को वेद सुनाते हैं और ब्रह्मा अपने पुत्रों को और यही क्रम चलता रहता है। वेद में तीन गुना विभाजन ब्रह्म और आत्मा के सत्य को ही व्यक्त करता है। इसलिए, वेद अपौरुषेय है, क्योंकि जगत वेद के कारण से प्रभावित है, वेद में जगत सुप्त है तथा वेद की सम्पूर्ण जगत का सूत्रधार है। जगत से वेद नहीं है। वेद ही ब्रह्म और वेद से ही सम्पूर्ण जगत है।
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