कब तक राम बाहर तलाशें?
कब तक राम बाहर तलाशें, कब तक राह निहारें हम,कदम कदम पर रावण बैठे, खुद में राम निहारें हम।
रावण भी तो खुद के भीतर, भेष बदल कर बैठा है,
लक्ष्मण रेखा पार करे ना, निज संस्कार संवारे हम।
कुम्भकरणी निद्रा लेकर, कब तक खुद को धोखा दोगे,
स्वर्ण मृग सी असीमित इच्छाएं, संयम से बिसरायें हम।
धर्म विभीषण बार बार, आकर हमको समझाता है,
मर्यादाओं का पालन सीखें, धर्म संस्कृति अपनायें हम।
अ कीर्ति वर्द्धन
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