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हिन्दू राष्ट्र क्या, क्यों, कैसे?

हिन्दू राष्ट्र क्या, क्यों, कैसे?

पुस्तक का सार-तत्व

-प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज


हिन्दू राष्ट्र क्या है, यह जानना इस दृष्टि से आवश्यक है कि वर्तमान में भारतवर्ष के विषय में सभी आधारभूत स्थापनायें और मान्यतायें राज्य के स्तर पर ही निर्धारित होती हैं और राजनैतिक दलों के द्वारा ही उनका निर्धारण होता है। परंतु अभी तक हिन्दुत्वनिष्ठ माने जाने वाले दलां में से भी किसी ने ऐसा स्पष्ट निर्धारण प्रस्तुत या प्रसारित नहीं किया है। दूसरी ओर हिन्दुत्व के विरोधी दलों द्वारा हिन्दू राष्ट्र की बात होते ही उसके विरूद्ध भयंकर झूठ से भरा प्रोपेगंडा युद्ध छेड़ दिया जाता है। इसलिये यह जानना भी आवश्यक है कि हिन्दू राष्ट्र क्या नहीं है।
वस्तुतः हिन्दू राष्ट्र का अर्थ है भारत में लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रतिष्ठा। सार्वभौम मानवमूल्यों के आधार पर भारतीय नागरिकता प्रदान किया जाना और उनका उल्लंघन करने वालों की नागरिकता समाप्त कर देना। यह इतना स्वाभाविक है कि संविधान निर्माताओं ने उसका अलग से उल्लेख आवश्यक नहीं समझा परन्तु मूल संविधान के आवरण में और अन्तर्वर्ती पृष्ठों के चित्रों में भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान बुद्ध आदि के चित्र और गीता के उपदेश का चित्र देना सहज स्वाभाविक माना। इतना ही नहीं, संविधान सभा द्वारा 22 जनवरी 1947 को संविधान के उद्देश्यों संबंधी प्रस्ताव (आब्जेक्टिव्स रिजाल्यूशन) को प्रस्तुत करते हुये स्वयं श्री जवाहरलाल नेहरू ने जो उद्देश्य संविधान के बताये, उनमें 8वां उद्देश्य था - ‘इस प्राचीन भारतभूमि को विश्व में उसका सही और गौरवशाली स्थान प्राप्त कराना और मानवजाति के कल्याण तथा विश्वशांति के प्रोत्साहन में भारत का स्वेच्छापूर्ण योगदान सुनिश्चित करना।’
इससे स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में भी भारत वर्ष का अर्थ है प्राचीन भारत भूमि जो निश्चित ही हिन्दू राष्ट्र है। ये भी स्पष्ट है कि वे सनातन धर्म या हिन्दू धर्म और हिन्दू इतिहास तथा हिन्दू पुरूषार्थ के द्वारा ही मानवजाति का कल्याण सुनिश्चित मानते हैं और यह भी मानते हैं कि हिन्दू जाति की यह कामना और विशेषता प्राचीन काल से रही है। परन्तु अब स्थिति यह है कि हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन भी इस अत्यंत प्राचीन भारत राष्ट्र में कुछ शताब्दियों पहले आये मतवादों को भी सनातन धर्म का ही डीएनए वाला बताते हैं और अपने को सेक्युलर कहने वाले परन्तु दर्शन, संस्कृति, इतिहास और भारतीय राजनीतिशास्त्र के विषयों में अनपढ़ और वज्रमूर्ख लोग तो हिन्दू धर्म के समकक्ष ऐसे-ऐसे मतवादों को रखते हैं जो सनातनधर्म के निकष पर केवल अधर्म और पाप हैं। वस्तुतः दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन आधुनिक पॉलिटिकल पार्टियों के नेताओं का न तो काम है और न ही उनमें इसकी पात्रता होती है। विश्व में अन्य किसी भी लोकतांत्रित राष्ट्र में न तो राजनेता यह काम करते और न ही जनगण उनसे यह अपेक्षा करते।
वस्तुतः दार्शनिक विषयों को राजनैतिक रूप में बलपूर्वक समाजों के सामने रखने का काम क्रिश्चियन चर्च ने पहली बार शुरू किया। परन्तु विश्व के श्रेष्ठ राज्यों के सम्पर्क में आने पर विभिन्न यूरोपीय क्षेत्रों के राजाआें ने और राजन्य वर्ग ने इसका अनौचित्य समझ लिया और इसलिये उन्होंने अपने-अपने राज्य की परम्पराओं, मान्यताओं, आस्थाओं और रीति-रिवाजों का संरक्ष्ज्ञण ही राज्य का कर्तव्य प्रतिपादित करना शुरू किया (मेरी समझ है कि यूरोपीय राजन्य वर्ग को यह समझ भारत के राज्यों और राजाओं को देखने के बाद ही आयी)।
नेशन स्टेट का उदय यूरोप में इसी राजनैतिक चेतना के साथ लगभग 150-175 वर्ष पूर्व हुआ। परन्तु चर्च के एक परिशिष्ट के रूप में जब कम्युनिज्म नामक आइडियालॉजी का विकास 19वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध में हुआ, तब से कतिपय कम्युनिस्ट विचारक राजनीति को भी दार्शनिक पदावली में व्यक्त करने लगे। इसका सबसे विडम्बनापूर्ण रूप लेनिन और स्तालिन नाम के दो उद्दंड और आपराधिक राजनेताओं के द्वारा इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका के सहयोग से (जर्मनी के विरूद्ध इन देशों का साथ देने के बदले में) प्राचीन भारत के बहुत बड़े क्षेत्र को अपने कब्जे में कर सोवियत संघ का निर्माण करने के बाद इस रूप में सामने आया कि दार्शनिक विषयों में तथा इतिहास, संस्कृति, भाषाविज्ञान, व्याकरण और विज्ञान के विषयों में अत्यधिक अल्पज्ञ होने पर भी ये दोनां ही व्यक्ति स्वयं को दार्शनिक की तरह प्रस्तुत करने लगे और उनके अनुयायियों ने तो उन्हें विश्व के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक प्रचारित करने का ही धंधा शुरू कर दिया। राजनीति के इतिहास में इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है?
भारत में जवाहरलाल नेहरू ने लेनिन, स्तालिन और चर्चिल-रूजविल्ट चारों से प्रेरणा लेकर एक मिश्रित किस्म की राजनीति शुरू की और स्वयं को इतिहास, दर्शन, राजनीतिशास्त्र, वित्तशास्त्र, भाषाशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और संस्कृति - सभी के सर्वश्रेष्ठ आधिकारिक विशेषज्ञ की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। वह विंडबना भारत के राजनेताओं की एक परम्परा ही विगत 70 वर्षों से बन गई है और वे राष्ट्र के सभी अनुशासनों का वैचारिक मार्गदर्शन करने में स्वयं को समर्थ मानते हैं। स्वयं को सेक्युलर कहने वाले नास्तिक और अल्पज्ञ राजनैतिक लोगों और उनके चेले कथित बौद्धिकों या संचारकर्मियों में यह दम्भ पराकाष्ठा पर है और वे सच्च हिन्दूधर्म, सच्चा इस्लाम और सच्चा ख्रीस्तपंथ तथा सच्चा समाजवाद - चारों का स्वयं को सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञ मानकर भारत के राजनैतिक आकाश को अपने प्रलापों से भीषण रूप में प्रदूषित और मलिन किये हुये हैं। इसलिये राजनैतिक क्षेत्रों में हिन्दू राष्ट्र के विषय में स्पष्टता लाना आवश्यक है। क्योंकि जैसा भारत 15 अगस्त 1947 के बाद, विशेषकर 26 जनवरी 1950 के बाद, हिन्दू समाज की सभी परम्परागत न्यायिक संस्थाओं को बलपूर्वक समाप्त कर केवल एंग्लो क्रिश्चियन राजकीय व्यवस्थाओं को ही एकमात्र विधिक व्यवस्था घोषित कर रूपान्तरित कर दिया गया है, उसके बाद राज्य ही इन विषयों में एकमात्र अधिकृत संस्था है और राज्य मुख्यतः राजपुरूषों के ही अधीन है तथा विविध राजकीय अंगों के अतिरिक्त अन्य किसी को वे वैधता देते भी नहीं हैं। इसलिये राजनैतिक दलों के स्तर पर तथा उनका समर्थन करने वाले नागरिकों के स्तर पर इस विषय की स्पष्टता आवश्यक है। इस दृष्टि से इस पुस्तक का महत्व है।
पुस्तक में हमने स्पष्ट किया है कि विश्व में इस समय स्वयं को रेलिजन या मजहब कहने वाले किसी भी अनुशासन में मनुष्यों को, मानव समाज को और मानवता को एक इकाई नहीं माना जाता। वे मानवता को रेलिजस और हीदन या मोमिन और काफिर या क्रांतिकारी और प्रतिक्रियावादी या अगड़े और पिछड़े - इन दो परस्पर नितांत विरोधी युग्मों में ही दिखते हैं। जबकि सनातनधन के सभी धर्मशास्त्र मानवता को और मानव समाज को एक एकीकृत इकाई मानते हैं। देश और काल का विचार वे व्यापक सामान्य धर्म के विस्तृत विवेचन के बाद उससे आगे विशेषज्ञता के विभाजन की दृष्टि से विशेष धर्म के रूप में अलग से करते हैं परन्तु हिन्दू मानव बनाम अहिन्दू मानव जैसा कोई भी विभाजन सनातन धर्मशास्त्र नहीं करता। वे सभी के लिये धर्म और अधर्म, पुण्य और पाप, उचित और अनुचित, सदाचार और अनाचार या दुराचार के सार्वभौम निकष ही प्रतिपादित करते हैं। अतः हिन्दू धर्म मानव धर्म ही है। मानवधर्म सार्वभौम है और आनंद की प्राप्ति तथा वृद्धि ही धर्म का और धर्मशास्त्रों का प्रयोजन है। धर्मशास्त्र किसी राजा या शासक द्वारा रचित राज्यानुशासन नहीं है और वे किसी महान व्यक्ति के अनुशासन भी नहीं है। वे तो सृष्टि और जीवन चक्र के नियमों और प्रक्रियाओं के ज्ञान के प्रतिपादन हैं। इसीलिये वे नैसर्गिक अनुशासन और उपदेश हैं। वे यह बताते हैं कि क्या करने से आनंद मिलेगा और क्या करने से कष्ट की वृद्धि होगी। इस अर्थ में वे ज्ञान प्रदाता शास्त्र हैं। इन्हीं सनातन धर्मशास्त्रों पर आधारित भारतीय राष्ट्र जीवन को हिन्दू धर्म कहा जाता है। अतः हिन्दू धर्म सभी मनुष्यों के लिये कॉमन कोड है। वह किसी मसीहा या पैगम्बर या देवदूत के किसी किताब में संग्रहीत वचनों को ही एकमात्र पालनीय कर्तव्य नहीं बताते। वह सार्वजनिक नियमों और मूल्यों की बात करता है। वह प्रत्येक पुस्तक या किताब का परीक्षण धर्म और अधर्म के सार्वभौम निकषों पर करता है। मुख्य बात यह है कि भारत वर्ष में इस सनातन धर्म या हिन्दू धर्म के पालन की निरंतरता बनी हुई है। यह व्यवहार की निरंतरता है। जबकि स्वयं को मुसलमान कहने वाले लोगों में से बहुलांश स्वयं कुरान के अनुसार हदूद गुनाह करने वाले और मुशरिक या मुनाफिकीन ठहरेंगे। इस प्रकार स्वयं को मुस्लिम नेशन स्टेट कहने वाले लोगों के अधिकांश काम मुनाफिकीन के काम ही सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार स्वयं ईसाई लेखकों ने ईसाइयत के बारे में लिखा कि ईसाइयत के नियमों के अनुसार संसार में आज तक कोई शासन नहीं चला है और अगर चलता तो ईसाई सभ्यता तक का कोई विकास ही नहीं होता। इसी प्रकार अपने को कम्युनिस्ट कहने वाले राज्यों ने किस प्रकार स्वयं कम्युनिज्म के मूलभूत सिद्धांतों और सिद्धांतकारां की हत्या की, इस विषय पर विश्व के दिग्गज कम्युनिस्ट लेखकों और संपादकों ने ‘ब्लैकबुक ऑफ कम्युनिज्म’ नाम से विशाल ग्रंथ ही रचा है।
इसके विपरीत भारत के महान सम्राटों ने सदा धर्मशास्त्रों और भारतीय राजनीतिशास्त्रीय ग्रंथों में प्रतिपादित राजधर्म को ही अपना लक्ष्य घोषित किया और इसका पालन किया। यह परंपरा 15 अगस्त 1947 तक अविच्छिन्न बनी रही। सियोदिया वंश सहित चौहानों, परमारों, सोलंकियों, तोमरों आदि अनेक राजवंशों के राजाओं के राजकीय अभिलेख इनका प्रमाण है जो मेवाड़, जयपुर-आमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही आदि राजाओं के संग्रहालयों में सुरक्षित है। महान सूर्यवंशी सम्राट महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज तथा आधुनिक विश्व के महानतम सेनापति बाजीराव पेशवा आदि के शासनकाल के विधि-विधान आज भी सुलभ हैं। शकावलियाँ भी प्रामाणिक हैं क्योंकि वे ‘शक’ अर्थात शक्तिशाली सम्राटों की राज्य व्यवस्था के अभिलेख हैं। इसी प्रकार मैसूर, त्रावणकोर, कोचीन, ग्वालियर, बड़ौदा, इन्दौर आदि राज्यों के भी राज्य संचालन संबंधी विवरण सुलभ हैं। अतः हिन्दू राष्ट्र के लिये आवश्यक विधि-विधान और प्रबंधन के आधार सहज ही विद्यमान हैं।
इस विराट ज्ञान परम्परा और व्यवहार परम्परा के विद्यमान रहने पर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना और लक्ष्यों के विषय में किसी प्रकार की अस्पष्टता का स्थान नहीं है। जो लोग हिन्दू राष्ट्र की बात सुनते ही भड़क उठते हैं वे, वस्तुतः हिन्दुओं के साथ न्याय पर ही आपत्ति व्यक्त करने वाले लोग हैं। वे चाहते हैं कि भारत के राजकोष से मजहबी किताबो ंऔर बाइबिल जैसे संग्रहों के अध्ययन और प्रसारण का व्यय वहन किया जाये परन्तु वे यह नहीं चाहते कि गीता और रामायण तथा महाभारत विद्यार्थियों को पढ़ाया जाये और उपनिषदों और वेदों का ज्ञान उच्च शिक्षा में शामिल हो। उनकी इस लालसा के पीछे कोई तर्क नहीं है सिवाय हवाई किस्म की गालियों के और यह शोर मचाने के कि हिन्दू धर्म संसार में सबसे अधिक अन्याय और शोषण पर आधारित कर्म है तथा इसे नष्ट हो जाना चाहिये। इसके स्थान पर ईसाइयत, इस्लाम और कम्युनिज्म को फैलना चाहिये। स्पष्ट है कि ऐसा दुर्भाव और विद्वेष रखने वाले लोग हिन्दुओं से घृणा करते हैं और सार्वभौम मानवमूल्यों अर्थात् सत्य, अहिंसा, पवित्रता, सन्तोष, स्वाध्याय, अन्य को पीड़ा नहीं देना तथा अन्य के प्रति द्रोह का भाव नहीं रखना एवं
प्राणीमात्र के प्रति दया और अनुकम्पा तथा सर्वत्र शुभ और सुन्दर देखना तथा पर्यावरण और परिवेश में धर्म का संरक्षण करना - ये सार्वभौम मानवमूल्य भारतीय नागरिकता के आधार बने यह वे कदापि नहीं चाहते। वे हिन्दुओ ंको तो कभी-कभी यह सिखाते हैं कि परब्रह्म परमात्मा श्रीराम, श्रीकृष्ण, जगज्जननी दुर्गामाता तथा अल्लाह और जीसस पिता गॉड एक ही हैं परन्तु किसी भी मुसलमान या ईसाई के द्वारा यह कहा जाये, इसका आग्रह वे नहीं रखते। स्पष्ट है कि वे लोग मूलतः मानवद्रोही हैं और विशेषतः हिन्दूद्रोही हैं। इसीलिये हिन्दू देवीदेवताओं का अपमान वे उन्माद के साथ करते हैं। इन वैचारिक धूर्तताआें को सार रूप में स्पष्ट करने का प्रयास पुस्तक में किया गया है।
अध्याय 4 में यह स्पष्ट किया गया है कि हिन्दू राष्ट्र विधिक रूप से कैसे संभव है। इसके दो उपाय हैं भाग 4 (क) अनुच्छेद 51 में नागरिकों के जो मूल कर्तव्य बताये गये हैं, भारत का शासन उनको लेकर दृढ़ता का प्रदर्शन करे और यह सुनिश्चित करे कि भारत के नागरिकों के मध्य समान भ्रातृत्व को खंडित करने वाले व्यक्तियों और समूहों की नागरिकता समाप्त कर दी जाये। यह संविधान का दृढ़ता से पालन करने पर प्रशासन के स्तर पर ही हो जायेगा। इसके लिये किसी संविधान संशोधन की आवश्यकता ही नहीं है। जो भी व्यक्ति या समूह विशेषकर भारत के बहुसंख्यकों की आस्थाओं और रीतियों तथा परम्पराओं के विरूद्ध बिना समुचित प्रमाण के लांछन लगाये या उनका तिरस्कार करे या उनके प्रति निराधार निंदासूचक और अपमानसूचक शब्दों का प्रयोग करे, उन्हें समान भ्रातृत्व को खंडित करने वाला और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता को खंडित करने वाला होने के कारण नागरिकता से वंचित किया जाना चाहिये। ये दोनों ही काम भारत में 1980 ईस्वी के बाद और विशेषकर 1990 ईस्वी के बाद तेजी से किये जाने लगे। अतः ऐसे सभी समूहों की भारतीय नागरिकता समाप्त होनी चाहिये। यदि भारत के शासक संविधान में निहित इस व्यवस्था से भी आश्वस्त नहीं हैं और उपद्रवी तत्वों के उत्पात से आशंकित और भयभीत ही रहते हैं तो उन्हें अपने आश्वासन के लिये या अपने सहारे के लिये इसी अनुच्छेद 51 में एक और उपबन्ध जोड़कर यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि ‘सत्य, अहिंसा, भारत के अन्य बंधुओं के प्रति किसी भी व्यक्ति द्वारा मजहब, रिलीजन या ऑइडियालॉजी किसी भी आड़ में द्रोह की अभिव्यक्ति का सम्पूर्ण अभाव तथा प्राणिमात्र के प्रति अनुकम्पा - ये सार्वभौम मूल्य हैं और इनका पालन करना भारत के प्रत्येक नागरिक के लिये अनिवार्य कर्तव्य है’।
एक अन्य उपाय यह है कि अनुच्छेद 38 (1) में सामाजिक न्याय के साथ आध्यात्मिक या धार्मिक न्याय भी जोड़ दिया जाये। दूसरा उपाय यह है कि इस अनुच्छेद 38 में एक और उपबंध क्रमांक 3 इस प्रकार जोड़ दिया जाये - ‘भारत का राज्य भारत के बहुसंख्यकों के धर्म को वैसा ही संरक्षण देगा, जैसा अल्पसंख्यकों के मजहब और रिलीजन को देता है’।
संविधान बनाते समय स्वयं श्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि वर्तमान संविधान हड़बड़ी में रचित एक दस्तावेज है जिसे आवश्यकतानुसार परिष्कृत और संशोधित किया जाता रहेगा। अतः यह आवश्यक है कि जो बातें संविधान में अन्तर्निहित हैं परन्तु कुछ अस्पष्टता लगती है तो उन्हें स्पष्ट कर दिया जाये। इसलिये संविधान के भाग 4 में राज्य के नीति निदेशक तत्वों में अनुच्छेद 39 में यह स्पष्ट कर दिया जाये कि राज्य के नीति निदेशक तत्वों का पालन राज्य का कर्तव्य है या फिर अनुच्छेद 37 में जहाँ पहले से ही स्पष्ट है कि नीति निदेशक तत्वों का पालन राज्य का कर्तव्य है। वहाँ शीर्षक में भी उसे ‘राज्य का कर्तव्य’ घोषित कर दिया जाये अथवा अनुच्छेद 37 में ही उपबंध 3 जोड़कर यह घोषित किया जाये कि सार्वभौम मानवमूल्यों की रक्षा भारत शासन का कर्तव्य है।
वस्तुतः इस सामान्य की बात को भी अभी भारत के अधिकांश राजनेता स्मरण नहीं रख पाते। यही कारण है कि वर्तमान कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने और उससे टूटकर बने अन्य घटकों के नेताओं ने तथा भारतीय कम्युनिस्टों ने यह भाव अपना लिया है कि राज्य में आने के बाद वे राष्ट्र के सर्वाधिकारी हैं। राष्ट्र के प्रति वे अपना कोई कर्तव्य नहीं मानते दिखते। इसलिये संविधान में अन्तर्निहित राज्य के कर्तव्य स्पष्ट रूप से रेखांकित करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही संविधानेतर कार्यों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये। किसी भी राजनैतिक दल को संविधानेतर अधिकारों का प्रदर्शन करना या संविधानेतर कार्य करने का कोई अधिकार नहीं है। संविधान में सब जगह चुने गये लोगों को जनप्रतिनिधि ही माना गया है। जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार ही उनका चुनाव होता है। अतः कोई भी जनप्रतिनिधि स्वयं को समाज के उद्धारक की तरह प्रस्तुत करने का अधिकारी नहीं है। वह अपने क्षेत्र का, वहाँ की श्रेष्ठ परम्पराओं और रीतिरिवाजों का प्रतिनिधि मात्र है। तरह-तरह के मतवादों के नारों को रटते-रटते चुने जाने पर वे स्वयं को उन नारों का प्रवक्ता मान लेते हैं जबकि संविधान के अनुसार वे अपने क्षेत्र के सभी मतदाताओं के, उनकी मान्यताओं और आस्थाओं के तथा श्रेष्ठ रीतिरिवाजों और परम्पराओं के प्रतिनिधि हैं, न कि नारों के प्रवक्ता। अतः राष्ट्रहित में यह आवश्यक है कि जनप्रतिनिधियों को प्रतिनिधि होने की मर्यादा में रखा जाये, वे उद्धारक होने की भ्रांति सें मुक्त रहें। वे समाज के प्रतिनिधि ही हैं। उद्धारक या सुधारक नहीं।
हिन्दू समाज की सामाजिक और धार्मिक संस्थाआें में राजनैतिक दलों का कोई भी हस्तक्षेप वर्जित होना चाहिये। शासन के द्वारा भी सामान्य सामाजिक व्यवहार में मनमाना हस्तक्षेप उचित नहीं है।
अध्याय 5 में इस पर भी विचार किया गया है कि हिन्दू राष्ट्र लायेगा कौन? स्पष्ट है कि सर्वप्रथम तो वे ही लोग हिन्दू राष्ट्र के वाहक बनेगें, जिनमें परंपरा से ही सनातन धर्म के संस्कार विद्यमान हैं। हमारे श्रेष्ठ ज्ञानीजन और संतजन सन्यासी और साधु, धर्मवेत्ता पंडित और विद्वान, आचार्य और मनीषी इस विषय में मार्गदर्शक होंगे। हिन्दू धर्म किसी को अपने से बाहर नहीं मानता। इसलिये किसी भी फेथ या ईमान या मान्यता का आग्रह रखकर सार्वभौम मानवधर्म का अनादर और अपमान नहीं किया जा सकता।
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का विरोध केवल वे लोग ही करेंगे जो भारत में रहकर भी इस कल्पना की दुनिया में जीते हैं कि वे अपनी ऑइडियालॉजी या मतवाद या अपने समूह का सम्पूर्ण राष्ट्र पर कब्जा कर लेंगे। ऐसे समूह पहली ही नजर में हास्यास्पद दिखने वाली मांगे करते हैं और उत्पात के द्वारा उसे पा लेना चाहते हैं। इतिहास के नाम पर झूठे प्रोपेगंडा को पढ़ाये और फैलाये जाने का यह परिणाम है।
श्रेष्ठ संस्कारों को समाज में व्यापक बना रहे लोग ही हिन्दू समाज में हिन्दू राष्ट्र की अभीप्सा को प्रदीप्त कर सकेंगे। विशेषकर विगत 77 वर्षों में तरह-तरह के प्रोपेगंडा के द्वारा हिन्दुओं के भीतर कुंठा, ग्लानि, हीनता और विस्मृति भर दी गई है। जिसके कारण वे अल्पसंख्यकों और उद्दंड किस्म के एक्टिविस्टो के सामने दबते से हैं। इसीलिये हिन्दू राष्ट्र के पक्ष में भव्य सार्वजनिक अभिव्यक्तियाँ अत्यंत आवश्यक हैं। इसके साथ ही मुख्य भूमिका तो प्रबुद्ध राजनैतिक समूहों की ही होगी। विधायिका में कुशल और इस लक्ष्य के लिये प्रशिक्षित लोग ही यह कार्य कर सकेंगे। अभी तक हिन्दुओं की उदारता का आश्चर्यजनक दुरूपयोग और शोषण हुआ है। अतः इस विषय में सजग जनप्रतिनिधि आवश्यक है। विश्व में इस समय परिवेश अनुकूल है और हमारी सहायक विश्वशक्तियाँ भी विश्व में भरी पड़ी हैं।
हिन्दू राष्ट्र की राह में रोड़े क्या हैं, इसे भी पुस्तक स्पष्ट करती है। इसके लिये राष्ट्रीय शिक्षा के आधारों पर विचार किया गया है। अभी भारत में मानविकी विद्याओं में मुख्यतः यूरो-ईसाई ज्ञान की भारतीय शाखायें ही पढ़ाई जाती हैं। भारतीय ज्ञान परंपराओं का सक्षम प्रतिनिधित्व भारत की शिक्षा में नहीं है। यह स्थिति ठीक नहीं है।
ज्ञानबल, प्रभुबल और विक्रमबल तीनों के विषय में पुस्तक में प्रतिपादन है और यह अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है कि वर्तमान ही भविष्य को गढ़ता है। इसलिये हिन्दू वीरता की परंपरा का बारम्बार स्मरण आवश्यक है और यह सत्य भी सदा राष्ट्रीय विमर्श का अंग होना चाहिये कि विश्व में युद्ध की तैयारियों की होड़ लगातार चल रही है। अतः वैश्विक मंचों पर राजनैतिक मन्तव्य से विश्व शांति आदि की बातें तो सहज स्वाभाविक हैं परन्तु भारत के लोगों को विशेषकर हिन्दू समाज को यह बताकर कि विश्व शांति का प्रसार हो रहा है, झूठ रूपी अफीम का सेवन नहीं कराना चाहिये। नेहरूजी के समय से इस झूठ को खूब फैलाया गया। बाहर हमारे नेता किन कारणों से क्या बोलते हैं, यह कूटनैतिक विमर्श का अंग है, राष्ट्रीय विमर्श का नहीं। भारत भगवान श्रीराम, योगेश्वर श्रीकृष्ण, जगदम्बा रणचण्डी दुर्गामाता, लक्ष्मीमाता, सरस्वतीमाता और महान वीरों तथा तेजस्वी ऋषियों का देश है, केवल निर्वाण और शांति का खोजी नहीं। तथागत बुद्ध ने भी युद्ध की कभी वर्जना नहीं की है। अतः अपने महानपुरूषां को अनुचित रूप में या गलत संदर्भ में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिये।
प्रधानमंत्री ने भी गुलामी के सभी अवशेषों को मिटाने का आव्हान किया है। अतः उस दिशा में अधिकाधिक प्रयास होने चाहिये। हिन्दू शास्त्रों में प्रतिपादित मानवधर्म की शिक्षा भारत की शिक्षा से बहिष्कृत रही है, यह गुलामी का ही चिन्ह है। इसे मिटाना आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता में सार्वभौम मानवधर्म की ही निर्णायक भूमिका है। इधर कुछ वर्षों से लगातार कांग्रेस मानवधर्म की विरोधी हो गई है और वह मजहबी उग्रवाद की परोक्ष पोषक बन गई है। मजहबी उग्रवाद की सेवा में हिन्दुओं को हर पाप और उन्माद के प्रति शांत रहने और मुहब्बत करने की प्रेरणा देने का धंधा कांग्रेस का नेतृत्व करने लगा है। यह राष्ट्र विरोधी और राष्ट्र विनाशक कार्य है। क्रूरता और नृशंसता का दमन राजधर्म है। धर्मपालन ही राज्य का कर्तव्य है। राज्य कंटकशोधन के द्वारा ही प्रजापालन कर सकता है। पुण्य और पाप का विचार ही न्याय का आधार है। भारतीय राजनेताओं ने विश्व का यथार्थ छिपाने के लिये भारत के विषय में बहुत तरह के झूठ फैलाये हैं। इन अवरोधों के बीच भी भारतीय प्रतिभाओं ने विश्व में पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त की है। अतः विधिक और न्यायिक संरचनाओं में आवश्यक परिवर्तन करते हुये भारत के बहुसंख्यक समाज यानी प्रधान समाज की प्रज्ञा और शील को प्रतिष्ठा देने के लिये विधिक स्तर पर भी हिन्दू राष्ट्र की घोषणा आवश्यक है। परंतु यदि किन्हीं कारणों से वर्तमान राजनेता यह साहस नहीं जुटा पाते तो भी वे संविधान में अन्तर्निहित सार्वभौम मानव मूल्यों का पालन सुनिश्चित करके हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को बड़ी सीमा तक साकार कर सकते हैं। यही इस पुस्तक का प्रतिपाद्य है।
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