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बहुत महत्व की है आज की संध्या और आज की रात्रि।

बहुत महत्व की है आज की संध्या और आज की रात्रि।

सहज वाम साधक जिस मोहनिशा की अन्हरिया की प्रतीक्षा करता है, जब वामी आगमोक्त सूत्र मूर्त नर्तन करते हैं, तब परिज्ञा पक्षी चंद्रमा उस निवीड़ निशीथ में जीवन के पूर्वाद्ध में संचित अमृतबिंदुओं से प्रारब्ध की दाहकता को शान्त करते हैं। व्यक्तिगत हमें अंजोर से कहीं अधिक इस अन्हरिया से प्रेम है। गोरे से अधिक सांवरा मन को खींचता है। गोरी प्रिय है पर श्यामा पर तो रीझे हैं हम। सांवरी के हाथ दे आए हैं मन-पतंग की डोर भी मांझा भी।

अमावस को शीतरश्मि ओषधीश चंद्र अपने अप्रकाशित भाग से पृथ्वी को तकेंगे तम-रज की प्रबलता होगी। पूर्णिमा को इसके विपरीत।

मरे हुए और अमरा दोनों शर्वरीश की शीतलता के प्यासे। एक की प्यास बुझाएंगे क्षीण होकर दूजे को तृप्त करेंगे पीन होकर। मधु मधु मधु! तृपध्वम् तृपध्वम् तृपध्वम्! स्वधा स्वधा स्वधा! स्वाहा स्वाहा स्वाहा! चंद्र एक एक कला पितरों को पिलाएंगे कृष्‍णपक्ष में, देवताओं को शुक्ल पक्ष में।अमा पितर-पर्व है पूनम देवपर्व। आश्विन-अमावस श्रेष्ठतम, आश्विन-पूर्णिमा शुद्धतम।

कभी हमारे पूर्वपुरुष इस आश्विन अमावस की पूरे वर्ष प्रतीक्षा करते थे कि सविता की गोद में बैठे यम के संगी अपने वायव्य पितरों से अपने मन की बात घर का दुख सुख कहेंगे। वंशवृद्धि के लिए आशीष लेंगे। अग्नि से आहुतियां लेने वाले हमारे पितर हमारी प्रार्थनाओं को सुनते भी हैं।

यह त्यौहार है कोई मातमी मौका नहीं। दादा परदादा के पसंदीदा व्यंजन बनवाइए। उनको याद कीजिए

अब यह जो हमारे पितर हैं, इनकी भी कई श्रेणियां हैं। पितृ लोग अधिकतर देवों, विशेषत: सूर्यपुत्र यम के साथ आनन्द मनाते हुए व्यक्त किये गये हैं।इसलिए उपर उन्हें सविता की गोद में बैठा कहा।

वे सोमप्रेमी होते हैं, वे कुश पर यानी कि दर्भासन पर बैठते हैं, यह कुश बड़े महत्व की वनस्पति है। तीनों लोकों को जोड़ने वाली रज्जु है यह।

एक जगह पितरों की तीन कोटियाँ कही गयीं।यथा–पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:। सोम संबंधित, अर्यमा संबंधित और अग्नि संबंधित। वैसे तो यह तीनों देवतुल्य। पर अन्तिम दो के नाम ऋग्वेद में आये हैं। शतपथ ब्राह्मण ने इनकी परिभाषा यों की है–"जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर बर्हिषद: कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ता: कहा गया है; केवल ये ही पितर हैं।

मनु ने भी पितरों की कई कोटियाँ दी हैं और चारों वर्णों के लिए क्रम से सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन: पितरों के नाम बतला दिये गये हैं। आगे चलकर मनु ने कहा है कि ब्राह्मणों के पितर अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। इन नामों से पता चलता है कि मनु ने पितरों की कोटियों के विषय में कतिपय परम्पराओं को मान्यता दी है।

एक जगह पिता, पितामह और प्रपितामह इनको अश्रुमुख कहा। ये वार्षिक तर्पण श्राद्धादि के अधिकारी हैं। इनसे उपर की तीन पीढिय़ों को नान्दीमुख पितर कहा जिन्हें नांदीमुख श्राद्ध और उपनयन यज्ञ के फल का अधिकारी बनाया है। इसके अतिरिक्त 'कारूणिक' पितरों की एक श्रेणी है जिसमें हमारे पितरों के मित्र और सम्बन्धी आते हैं। कहाँ होगा ऐसा दर्शन अन्यत्र!

स्कन्द पुराण ने पितरों की नौ कोटियाँ दी हैं; अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। इस सूची में नये एवं पुराने लगभग सभी नाम सम्मिलित हैं।

इन पितरों को कभी भूलिए नहीं। इन्हें भूल जाना तो हमारी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट कर देगा।

इस आश्विन-अमा पर आइए हृदय के सोमदीप जलाएं! पितर तृप्त हों! हमारी कामनाएँ तृप्त हों, कल्पनाएँ तृप्त हों। वंशवृद्धि हो।

ॐ आयन्तु न: पितर: सोम्यासोऽग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै: ।
अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिव्रुवन्तु तेऽवन्तस्मान् ॥
(शु० यजु० १६।५८)

‘हमारे सोमपान करने योग्य अग्निष्वात्त पितृगण देवताओं के साथ गमन करने योग्य मार्गों से यहाँ आवें और इस यज्ञ में स्वाधा से तृप्त होकर हमें मानसिक उपदेश दें तथा वे हमारी रक्षा करें ।’

ॐ उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्त: समिधीमहि ।
उशन्नुशत ऽआवह पितृन्हाविषे ऽअत्तवे ॥
(शु० यजु० १६।७०)

‘हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं । यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं । हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामनावाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ ।’
शुभकामनायें
✍🏻मधुसूदन 'पाराशर' उपाध्याय

श्राद्ध पक्ष ‘मृतकों’ का न हो कर जीवन के प्रति, अमरता के प्रति, अक्षुण्ण प्रवाह के प्रति समर्पण का सायास आयोजन है । जन्मदिन birthday मनाने से भी आगे जा कर उन पूर्वजों को अमरत्व प्रदान करना है जिनके कारण हमारा अस्तित्त्व इस धरा पर है। एक बहुत ही प्राचीन भारतीय विचार है, मनुष्य अपने जीवनकाल में तीन जन्म लेता है, पहला माँ के गर्भ से, दूसरा शिक्षा प्राप्ति हेतु गुरु के निकट जाने पर जिसे कि अलङ्कारिक रूप में कहा गया कि श्रीगणेश के समय वह शिष्य को अपने गर्भ में तीन दिन रखता है एवं तीसरा जो कि सबसे गहन है, तब होता है जब शरीर मरती है ।
इस विचार के आलोक में श्राद्धपक्ष को देखें, श्रद्धा आयोजन का महत्त्व समझ में आ जायेगा।
‘श्रद्धा’ शब्द ‘श्रत्’ या ‘श्रद्’ शब्द से ‘अङ्’ प्रत्यय होने पर बनता है, जिसका अर्थ है- ‘आस्तिक बुद्धि। ‘सत्य धीयते यस्याम् सा श्रद्धा’ अर्थात् जिसमें सत्य प्रतिष्ठित है वह श्रद्धा है । श्राद्ध श्रद्धा से ही व्युत्पन्न है। संस्कृत श्रत् रोमन मूल के अंग्रेजी शब्द Heart के मूल में है जिसमें निष्ठा एवं श्रद्धा का शालग्राम निहित है, कहते हैं न by heart !

मनुष्य एक स्मृतिजीवी प्राणी है। स्मृतियों को ले कर जाने कितनी कलाकृतियाँ, साहित्य, गीत, समर्पण आदि नित्य सृजित किये जाते रहे हैं, जायेंगे । शरीर ‘शॄ-ईरन्’ के मूल में शॄ है, हिंसा से जुड़ा, क्षरण से जुड़ा। युवा होता पिण्ड विस्तार लेता है, देह (दिह्-घञ्) कहलाता है, वृद्धि करता है। एक निश्चित समय के पश्चात वह छीजने लगता है, शरीर हो जाता है। एक दिन शरीर नहीं रहती , स्मृतियाँ रह जाती हैं ।

देखें तो स्मृति (स्मृ-क्तिन्) मरण के शाश्वत सत्य के बीच अमरता का बीज है जिसे मनुष्य विविध आयोजनों से सायास बनाये रखता है । सनातन प्रज्ञा सुकर्मों पर केंद्रित है क्यों कि उनसे स्मृति का शुभ्र पक्ष बढ़ता है । ‘मृत व्यक्ति के बारे में बुरा नहीं कहते’ इस कथन के पीछे एक सूक्ष्म मनोविज्ञान है कि हम मृत की स्मृति में कभी उसकी बुराइयाँ नहीं दुहराते । ‘सत्य शिवम् सुन्‍दरम्’ की अवधारणा के नेपथ्य में एक स्वस्थ, सुन्दर, चिरजीवी समाज का स्वप्न है जिसकी स्मृतियों में शुभ्रता का साम्राज्य रहे ।

हमारे बीच साक्षात सदेह रह कर गये पितर यहीं महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। वे देवताओं की भाँति दुर्लभ नहीं, कभी सहज सुलभ रहे होते हैं । देवस्तोत्रों की तुलना में महान कर्म करने वाले पूर्वजों की स्मृतियों के माध्यम से हम वरेण्य व्यवहार के निकट अधिक सरलता से पहुँच सकते हैं । इस कारण ही पितरों को देवतुल्य माना गया है। संसार की समस्त प्राचीन सभ्यताओं में पितरों के प्रति श्रद्धा का भाव अभिव्यक्त हुआ है । सनातन में प्रत्येक वर्ष का एक पक्ष पितरों के श्राद्ध हेतु निश्चित है, आश्विन(पूर्णिमान्‍त) माह का यह कृष्ण पक्ष वही है। पूर्णिमा तिथि वाले एक दिन पूर्व की भाद्रपद पूर्णिमा को भी सम्मिलित कर लेते हैं।

देखें तो स्मृतियों को जीना मरण या नश्वरता के विरुद्ध जीवन अभियान है। वैदिक संहिताओं से ले कर आख्यानों तक, पुराणों तक अमरत्व की इच्छा, साधना, व्यवस्थायें विविध रूपों में अभिव्यक्त हुई हैं । देवताओं के समान्‍तर पितरों का अस्तित्त्व वृत्तीय सममिति में बना ही रहता है मानों ‘यिन यान’ हो ।
दिन देव, रात पितर; शुक्ल देव, कृष्ण पितर; उत्तरायण देव, दक्षिणायन पितर; देवयान पितृयान … सन्‍तुलित श्रद्धा के बहुआयामी विवरण विविध स्रोतों में मिलते हैं। भक्तिपूरित देव आराधना में कर्मकाण्ड पीछे छूट जाते हैं तो पितरों हेतु यहाँ तक कहा गया है कि कुछ न मिले, मन्‍त्र न पता हों तो श्रद्धा के साथ जलाञ्जलि ही पर्याप्त है।

पितृपक्ष और #नवरात्र की संधिकाल को महालया कहा जाता है इस समय मां दुर्गा के घर आगमन के लिए पूजा की जाती है और पितरों को जल देकर प्रार्थना और नमन करते हैं कि आपअपनेलोकमेंप्रसन्नरहें और अपने परिवारजन पर हमेशा कृपा दृष्टि बनाए रखें| महालया अमावस्या की सुबह को पितर पृथ्वीलोक से विदाई लेते हैं और शाम के समय मां दुर्गा अपनी योगनियां और पुत्र गणेश,कार्तिकेय के साथ पृथ्वी पर पधारती हैं अर्थात महालया के दिन पितृपक्ष समाप्त होता है और इसी दिन से देवीपक्ष की शुरुआत हो जाती है| मान्यता है कि पृथ्वीलोक देवी पार्वती का मायका है और नवरात्रि के नौ दिनों में पृथ्वी पर रहते हुए लोगों की कठिनाइयों को दूर करती हैं |इसलिए इस दिन से माँ की आराधना विशेष रूप से की जाती है।

महालया- नवरात्र को दुर्गा पूजा के नाम से भी जाना जाता है। इसकी शुरुआत महालया से होती है । महालया नवरात्र या दुर्गा पूजा से एक पहले दिन को होता है। इसमें मां दुर्गा की पूजा की जाती है और उनसे प्रार्थना की जाती है की वो धरती पर आए और अपने भक्तों को आशीर्वाद दें।
• महालया त्योहार ज्यादातर बंगालियों द्वारा मनाया जाता है। इसमें मां दुर्गा को उनके भक्तों की महिसासुर से रक्षा करने के लिए बुलाया जाता है। ये अमावस्या की काली रात को मनाया जाता है और भक्त मां से धरती पर आने की प्रार्थना करते हैं।महालया के दिन मां की मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार, मां दुर्गा की आंखों को बनाते हैं जिसे चक्षुदान भी कहते हैं ।• महालया के अगले दिन से मां दुर्गा के नौ दिनों की पूजा के लिए कलश स्थापना की जाती है इसके साथ ही देवी के नौ रूपों की पूजा के साथ नवरात्रि की पूजा शुरू हो जाती है।
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