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श्री दुर्गा सप्तशती और मानसिक स्वास्थ्य

श्री दुर्गा सप्तशती और मानसिक स्वास्थ्य

अश्वनी कुमार तिवारी
मार्कंडेय पुराण का एक हिस्सा जिसे श्री दुर्गा सप्तशती कहा जाता है, उसे देखें तो पुनः यही बात स्थापित होती है। श्री दुर्गा सप्तशती का पहला ही अध्याय सुरथ नाम के एक राजा और समाधी नाम के एक वैश्य की कथा पर आरंभ होता है। ये दोनों ही लोग किन्हीं कारणों से दुखी हैं और वन में एक आश्रम में हैं।


ये भाग और इसमें दिया गया वर्णन इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ऐसे दुःख मनुष्यों को अवसाद में धकेलने का एक कारण होते हैं। ये मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन करने वालों के लिए एक मुख्य बिंदु होता है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन ने 10 अक्टूबर 2021 को मनाये जाने वाले “विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस” का आधार बिंदु ही असमानता को रखा है
महाभारत के वर्णन के हिसाब से देखें तो चौथा, पांचवां, आठवां और दसवां कारण इसी असमानता के व्यवहार की बात कर रहा होता है। हाल ही में यूनिसेफ ने भी मानसिक स्वास्थ्य पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट भी जारी की है
कोरोना काल में लम्बे लॉक-डाउन, आर्थिक संकट आदि झेल चुके विश्व के लिए दुःख और उसके कारण समझना एक महत्वपूर्ण पहलु होता है।


महाभारत में गिनाये दुखों का पहला कारण, परिवार से दूर होना राजा सुरथ और समाधी दोनों पर लागू होता है। दूसरा कारण – सम्बन्धियों द्वारा त्याग दिया जाना तो समाधि नामक ये व्यापारी स्पष्ट रूप से झेल ही रहा था। श्री दुर्गा सप्तशती के राजा सुरथ को देखें तो अकारण ही उससे कुछ लोगों ने शत्रुता मोल ले ली थी। संख्या में कम होने पर भी राजा अपने शत्रुओं से हार गया था। इसलिए कहा जा सकता है कि उसपर आठवां दुःख का कारण यानी कम योग्यता वालों द्वारा अपमानित होना लागू होता था। नौवां मित्रों-स्वजनों का छल भी राजा पर लागू था क्योंकि उसका कोष हारने पर उसके मंत्रियों ने ही अपहृत कर लिया था। वो अपने प्रिय जन ही नहीं बल्कि हाथी किस स्थिति में होगा, इसकी चिंता भी करता दिखता है इसलिए चौदहवां कारण भी उसपर लागू होता दिखाई देता है। तेरहवां कारण यानी संचित धन की बर्बादी की चिंता भी राजा को हो रही होती है।
कहा जा सकता है कि जो सैद्धांतिक रूप से महाभारत में बताया गया है वही इस कथा में दिखता है। इससे आपको वो प्रसिद्ध उक्ति भी याद आ सकती है जिसमें कहा जाता है कि जो कहीं भी लिखा है वो महाभारत, में मिल जाएगा। पूरी कथा के समाप्त होने पर अंतिम अध्याय में आपको राजा के पुनः अपना राज्य प्राप्त करने और समाधि के मोक्ष की प्राप्ति भी दिखती है। इस तरह से ये कहानी अवसाद ग्रस्त (डिप्रेशन के शिकार) लोगों के ठीक होने और फिर से सामान्य जीवन जीने की कथा भी है। ऐसे में जो कुछ लोग ये समझ लेते हैं कि धार्मिक कथा होने के कारण ये केवल सन्यासियों के लिये होगी, वो भी उचित नहीं लगता। ऐसा होता तो राजा के फिर से अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने, मंत्रियों और राज्य का कोष दोबारा पाने या फिर आगे कभी एक पूरे मन्वंतर के उसके नाम पर हो जाने की कथाएँ क्यों होतीं?


इस हिसाब से देखा जाए तो न्यूनतम योग्यता की कसौटी पर भी श्री दुर्गा सप्तशती या फिर महाभारत जैसे ग्रन्थ काफी ऊपर आ जाते हैं। केवल अध्यात्मिक या दार्शनिक दृष्टिकोण को छोड़कर, सीधे-सादे से मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी इन्हें पढ़ा जा सकता है। पहले ही अध्याय में देखें तो श्री दुर्गा सप्तशती का 52वां श्लोक देखने लायक होता है -
कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा।


मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति॥ (अध्याय 1 श्लोक 52)


यहाँ कहा गया है कि मनुष्य भी प्रत्युपकार की आशा से ही संतति के प्रति प्रेम दर्शाते हैं, उनकी देखभाल करते हैं। यानी दुखों के कारण और उनके निवारण से पहले एक स्वीकार्यता बनाने का प्रयास किया गया है। किसी और पर गलती थोपकर, किसी और को दोष देकर आप दुखों के कारण मिटा नहीं सकते। अपनी स्थिति से उबर नहीं सकते, ये भी पहले ही स्पष्ट बता दिया गया है।


बाकी ऐसे ग्रंथों को पहले अनुवाद के साथ और फिर उनके मूल स्वरुप (संस्कृत श्लोकों में) पढ़ने का प्रयास करके देखिये। संभव है हर पाठ आपके दृष्टिकोण को एक नया विस्तार देता जाए। नवरात्रि की शुभकामनाएं!


दुर्गा सप्तशती का पाठ कुंजिका स्तोत्र के बिना हीन माना जाता है। अब ये कुंजिका स्तोत्र कौन किसे सिखा रहा होता है? इसका जवाब उसके अंत में है जहाँ “श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वती संवादे” लिखा हुआ है। अगर स्त्रियों के लिए पाठ वर्जित होता तो भगवान शिव खुद ही अपनी पत्नी को सिखाने जैसी हरकत क्यों करते?


जहाँ तक पाठ की विधि का प्रश्न है चिदम्बर संहिता में पहले अर्गला फिर कीलक और अंत में कवच पढ़ने का विधान है। योगरत्नावाली में पाठ का क्रम बदल जाता है और वहां पहले कवच (बीज), फिर अर्गला (शक्ति) और अंत में कीलक पढ़ने का विधान है। गीता प्रेस वाली दुर्गा सप्तशती में ठीक से देखने पर ये मिल जायेगा।


उसके अलावा पाठ विधि के अंतर देखेंगे तो मेरु तंत्र, कटक तंत्र, मरिचिकल्प आदि में भी थोड़े बहुत अंतर मिल जायेंगे। दुर्गा सप्तशती के लिए कई विधियाँ तंत्रों में हैं और करीब उतनी ही वैदिक रीतियों में भी हैं। कोई दिन में एक चरित्र पढ़े, कोई केवल एक अध्याय, कोई पूरी ही हर दिन पाठ करे, ये सभी संभव हैं।


सकाम और निष्काम के पक्ष से देखें तो सुरथ और समाधी नाम के दो लोगों पर इसकी कहानी शुरू होती है। राजा सुरथ को इस जन्म में राज्य और आगे सावर्णिक (जिनके नाम से मन्वन्तर है) ऐसे राजा होने का वरदान मिला था। समाधी ने अहंकार आदि से मुक्ति मांगी तो उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इसलिए अलग अलग फल भी संभव हैं।


हाँ, जैसे स्कूल में गणित (मैथ्स) के शिक्षक से हिंदी व्याकरण के सवाल पूछने नहीं पहुँच जाते थे, वैसे ही हर ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे से सलाह मत लीजिये। पूछना ही हो तो जो कोई 10-20 साल से पूजा करता करवाता आ रहा हो, ऐसे किसी को ढूँढने का प्रयास कीजिये। घर से निकल कर कुर्सी छोड़कर ढूंढना मुश्किल लगे तो फिर अपने मन की कीजिये।


अपराध क्षमा पाठ के अंत में “एवं ज्ञात्वा महादेवी यथायोग्यं तथा कुरु” लिखा होता है। जो होगा, सही ही होगा।


पूरी दुर्गा सप्तशती को पढ़ डालना उतना मुश्किल नहीं होता। इसमें सिर्फ सात सौ श्लोक होते हैं। हाँ, शुरू शुरू में उच्चारण मुश्किल लग सकता है, लेकिन ये एक्सरसाइज जैसा है। एक दो बार के अभ्यास में होने लगेगा। गलती हो जाने का डर और पाप लगेगा जैसा कुछ सोच रहे हैं तो बता दें कि सप्तशती के अंत में अपराध क्षमा का एक स्त्रोत पढ़ा जाता है। वो श्रंगेरी के शंकराचार्य श्री विद्यारण्य यति कृत है जिसमें वो कहते हैं कि मुझे सही पूजा विधियाँ नहीं आती इसलिए गलतियाँ हुई हों तो माफ़ कीजिये। इसलिए गलतियों की परवाह मत कीजिये, पाप नहीं लगता। फिर जिसपर शंकराचार्य आश्वस्त ना हों, उसपर सौ प्रतिशत सही होने का दावा कौन करेगा ?


भगवान के पास कोई आतंकियों जैसा हिसाब नहीं चलता कि एक वाक्य सही-सही सुना नहीं पाए तो गोली मार दी जायेगी। सिर्फ आपका प्रयास, आपकी शुभेक्षा देखी जायेगी, गलतियाँ माफ़ भी नहीं, सीधे अनदेखी हो जायेंगी। पाठ की सही विधि मालूम नहीं जैसे बहाने भी बेकार हैं। ये किताबों में सही क्रम में ही लिखा होता है, पहले पन्ने से शुरू कर के आखरी तक पढ़ डालना होता है बस। उच्चारण में बहुत दिक्कत हो तो साथ में ऑडियो बजा लीजिये, आपके मोबाइल की मेमोरी में 500 एम.बी. स्पेस है, आ जाएगा। सवाल सिर्फ इतना है कि हिंदुत्व के लिए किसने क्या किया और क्या नहीं किया की बहसों के बदले खुद कुछ करने की हिम्मत है या नहीं ?


किताब आसानी से पंद्रह से पचपन रुपये तक में मिल जाएगी। ये जो तस्वीर में दिख रही हैं वो हम कुछ प्रतियाँ खरीद कर बाँट आये हैं (जिसमें डेढ़ सौ रुपये लगे)। उम्मीद है कुछ लोग पढ़ने की हिम्मत तो जुटा ही लेंगे, कुछ लोग शायद पंडालों में वितरण की भी सोच पायें।


(सुधार :- अपराध क्षमा स्त्रोत के बारे में मालूम हुआ कि वो श्रंगेरी के शंकराचार्य श्री विद्यारण्य यति कृत है | पहले हमने आदिशंकराचार्य लिखा था, उसे सुधार दिया है)


वैसे तो कई हिन्दू अपने आप को स्वामी विवेकानंद से ज्यादा ज्ञानी मानते हैं, मगर स्वामी विवेकानंद से अधिक ज्ञानी और कम ज्ञानी दोनों ने ही भगिनी निवेदिता का नाम सुन रखा होता है। वो लम्बे समय तक स्वामी विवेकानंद के साथ रही थीं। जो स्वामी विवेकानंद से अधिक ज्ञानी हैं, उनके लिए इस बात का कोई विशेष अर्थ नहीं लेकिन दूसरे लोग शायद भगिनी निवेदिता की किताब “द मास्टर ऐज आई सॉ हिम” का नाम भी जानते होंगे। इसका ग्यारहवां अध्याय है “द स्वामी एंड मदर-वोर्शिप” जिसमें स्वामी विवेकानंद पशु-बलि के बारे में कहते हैं, चित्र पूरा करने में थोड़ा रक्त भी लग जाए तो क्या हर्ज है?


शाक्तमत के अनुसार साधनाक्षेत्र में तीन भावों तथा सात आचारों की विशिष्ट स्थिति होती है। पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव तीन भावों के संकेत हैं। तीनों भावों से जुड़े सात आचार हैं - वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणचार, वामाचार, सिद्धांताचार और कौलाचार। इनमें दिव्यभाव के साधक का संबंध कौलाचार से है। आजकल राजनैतिक कारणों से लोग जिस “नाथ पंथ” का नाम जानने लगे हैं, वो भी कौलाचार से संबंधित है। गंधर्वतंत्र, तारातंत्र, रुद्रयामल और विष्णायामल जैसे तंत्र के ग्रंथों के हिसाब से इसका प्रचार महाचीन (तिब्बत) से लाकर वसिष्ठ ने कामरूप (कामख्या-असम) में किया।


इसी कालिका के क्षेत्र कामख्या के आस पास लिखे गए कालिका पुराण में एक पूरा अध्याय ही “रुधिराध्याय” (अर्थात रक्त का अध्याय) कहलाता है। तंत्र की उपासना में जब साधक “द्वैत” भाव को पूरी तरह नकार देता है और अपने उपास्य में स्वयं को होम कर देता है, तब वो मानसिक स्थिति “दिव्य भाव” कहलाती है। कौलाचार पूर्ण अद्वैत वाले, दिव्यभाव के साधक के लिए सुगम होता है इसलिए इसे तांत्रिक आचारों में सर्वोत्तम भी माना जाता है। पंच मकार- मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन जिनका नाम संभवतः तंत्र से जुड़ा सुना होगा वो इसी उपासना के मुख्य साधन हैं।


कौल मत में बहिर्योग का प्रयोग होता है, और इसी से मिलते जुलते समयमार्ग में अंतर्योग (हृदयस्थ उपासना) का महत्व है। समयमार्गी पंच मकार का प्रत्यक्ष प्रयोग न करके इनके प्रतिनिधि स्वरुप दूसरी वस्तुओं का प्रयोग करता है (जिन्हें “अनुकल्प” कहा जाता है)। कौल सीधे पंच मकार का ही अपनी पूजा में उपयोग करता है। बड़े साधकों के नाम देखें तो शंकराचार्य समयाचार के अनुयायी थे और दूसरी तरफ अभिनवगुप्त या गौडीयशाक्त लोग कौलाचार का पालन करते थे। किसी काल में दोनों एक साथ न रहे हों, ऐसा कहना अधिक से अधिक अतिशयोक्ति हो सकती है, सत्य नहीं।


सौंदर्य लहरी के भाष्यकार लक्ष्मीधर ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों में भी दो भेद बताये हैं। बाहरी तौर पर देखें तो उत्तर कौल शिव और शक्ति दोनों की सत्ता मानते हैं। उनके अनुसार श्रृष्टि के सृजन काल में शक्ति प्रकट और शिव सुप्तावस्था में होते हैं, जबकि प्रलय काल में शिव जागृत और शक्ति सुप्तावस्था में होगी। उत्तर कौल शिव तत्व को नहीं, एकमात्र शक्ति को ही उपास्य मानते हैं। जैसे प्रकाश का न होना अँधेरा है, वैसे ही शक्ति के जागृत होने को श्रृष्टि और सुप्तावस्था में जाने को प्रलय भी माना जा सकता है। उत्तर कौल पद्दतियों पर ही महाचीन (तिब्बत) के तंत्र का अधिक प्रभाव दिखता है।


संभवतः उनकी उग्र उपासना पद्दतियों के कारण कौलाचारियों को आम लोगों और शासन का द्वेष भी झेलना पड़ा। ये बिलकुल अभी के समय जैसा है जब तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सत्ता, संवैधानिक प्रावधानों को नकार कर सीधा मंदिरों में हस्तक्षेप करती नजर आती है। अब अगर वापस सौन्दर्यलहरी के 23वें श्लोक की व्याख्या में देखें तो वहां अर्धनारीश्वर की चर्चा है। आमतौर पर ये माना जाता है कि अर्धनारीश्वर रूप में शिव के शरीर का वाम भाग पार्वती का (नारी स्वरुप) हो जाता है। सौन्दर्यलहरी की व्याख्या थोड़ी उल्टी है क्योंकि यहाँ साधक कहता है कि पार्वती ने ही जैसे शिव को सोख लिया हो! देवी का वर्ण लाल होने के कारण श्वेत शिव पर लालिमा दिखती है। त्रिनेत्र, अर्ध-चन्द्र और वक्ष आदि के कारण शिव का दाहिना भाग गौण और देवी का वाम पक्ष प्रबल है। ये कौलाचारियों के उस मत को बल देता है जो शक्ति को प्रधान और शिव तत्व को गौण मानते हैं।


मुग़ल काल के भक्तिरस वालों के समझने के लिए ये कुछ वैसा है जैसे श्री कृष्ण का सौम्य रूप। आमतौर पर बांसुरी बजाते जिस सौम्य कन्हाई को देखने की आदत है, उनके विश्वरूप लेते ही कौरव पक्ष के सभी योद्धाओं की आंखे डर कर बंद हो जाती हैं। भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय (पैंतालिसवें श्लोक) में अर्जुन जैसा योद्धा जो कई युद्ध और संग्रामों में मृत्यु देख चुका है, वो कहता है कि मैं इस रूप से भयभीत हूँ! समेटिये इसे! अद्वैत मत के कौलाचारियों के लिए जो साधना पद्दतियां हैं, वो सबपर जबरन थोपी जाएँ, ऐसी कोई दूसरे छोटे मजहबों जैसी व्यवस्था हिन्दुओं में नहीं होती। इसका मतलब ये भी नहीं कि जिनके लिए स्वीकार्य हैं उनपर भी जबरदस्ती बल-प्रयोग करके प्रतिबन्ध लगाए जाएँ। बलि देखने आपको कोई बांधकर तो ले नहीं जाता न, अपनी नाक हर मामले में न घुसेड़ें तो बेहतर।


बाकी आपकी भावना के आहत होने भर से माँ काली के हाथ से न खट्वांग गायब होगा, न उनकी लपलपाती जिह्वां अन्दर जायेगी, न उनके हाथ के कटे सरों से रुधिर बंद होता है, न उनकी मुंडमाला का लोप होता है। देवी उग्र ही रहेंगी। जिन्हें स्वीकार्य है, और जो बलि झेल नहीं पाते, दोनों को शक्तिपूजन के नवरात्र की शुभकामनाएँ !


सनातनी हिन्दुओं में “शैतान” जैसी कपोलकल्पना के लिए कोई स्थान नहीं। पाप की पराकाष्ठा भी आपको ईश्वर के पास पहुंचा देगी। जैसे देवी के नामों को देखेंगे तो जिस राक्षस के वध के लिए उन्हें जाना जाता है, उसका नाम लिए बिना आप देवी का नाम नहीं ले सकते। महिषासुर कहे बिना महिषासुरमर्दिनी नहीं कह सकते, शिव के नाम में भी गजन्तक, तमन्तक कहने में राक्षस का नाम आ जाता है। भगवान विष्णु के द्वारपालों, जय-विजय की कहानी इनमें से कई राक्षसों के जन्म के पीछे होती है, ये भी एक वजह है कि राक्षसों-असुरों को कभी सनातन धर्म में घृणित या निकृष्ट नहीं माना गया।


देवी का नाम दुर्गा होने के पीछे दुर्गमासुर कि कहानी होती है। ये रुरु का पुत्र हिरण्याक्ष (हिरण्यकश्यप-हिरण्याक्ष) के वंश का था और उसे एक बार वेदों के ज्ञान की अभिलाषा हुई। उसने कठिन तप से ब्रह्मा को प्रसन्न किया और वेदों के रचियेता से सारे वेद ही वर स्वरुप मांग लिए। वेद मिलने पर उसने सारी जानकारी अपने लिए रखनी चाही, जिसका नतीजा ये हुआ कि ऋषि-मुनि वेद भूलने लगे। वेदों के ज्ञान के लोप से यज्ञ संभव नहीं रहे और होम ना होने से वर्षा भी रुक गई। लम्बे समय तक बारिश ना होने से जब नदी नाले सूखने लगे और पेड़ पौधे, कृषि भी समाप्त होने लगी तो कई प्राणी मरने लगे।


ऐसे ही समय में राक्षस ने स्वर्ग के देवताओं पर भी आक्रमण किया। यज्ञों के भाग से बरसों से वंचित देवता मुकाबला नहीं कर पाए और भागकर सुमेरु पर्वत की गुफाओं में जा छुपे। उधर ऋषि मुनि भी कंदराओं में थे तो सबने मिलकर माहेश्वरी का आह्वान किया। पार्वती उनके तप से प्रसन्न होकर जब प्रकट हुई तो देवताओं ने उन्हें पृथ्वी की दुर्दशा बताई। हजारों आँखों से इस अवस्था को देखती हुई देवी के आँखों से ऐसी हालत देखकर आंसू बहने लगे। लगातार नौ दिनों तक रोती देवी के आंसुओं से ही बरसात हुई। पानी नदियों और तालाबों, फिर उनसे समुद्र में भी भरने लगा।


अब देवी ने अपना स्वरुप बदला और वो आठ हाथों में धान्य, फल-सब्जियां, फूल और दूसरी वनस्पतियाँ लिए प्रकट हुई। शताक्षी (सैकड़ों नेत्रों वाली) देवी के इस स्वरुप को शाकम्भरी कहते हैं। वेदों को हड़पे बैठे असुर को वेद लौटाने को कहने के लिए उन्होंने दूत भी भेजा। दुर्गमासुर कई देवताओं को जीत चुका था और उसपर बातों का कोई असर तो होना नहीं था। नतीजा ये हुआ कि वो अपनी कई अक्षौहणी सेना लिए देवी पर आक्रमण करने आया। देवी ने अपना स्वरुप फिर बदला और इस बार वो अस्त्र-शस्त्रों से लैस प्रकट हुईं। उनकी और से युद्ध में परा शक्तियां काली, तारिणी, त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला इत्यादि भी उतरीं।


देवी के शरीर से ही नवदुर्गा, मातृकाएं, योगिनियाँ और अन्य शक्तियां भी प्रकट होकर युद्ध में सम्मिलित होने लगीं। थोड़े ही दिनों में दुर्गमासुर की सारी सेना समाप्त हो गई और ग्यारहवें दिन दुर्गमासुर रथ पर सवार स्वयं युद्ध में उतरा। देवी और राक्षस का युद्ध दो पहर चला और राक्षस मारा गया, राक्षस के देवी के शरीर में समाते ही विश्व की व्यवस्था फिर पहले जैसी हो चली।


राजस्थान के सांभर झील के बारे में मान्यता है कि वो शाकम्भरी देवी ने ही दिया था, उसके पास ही उनका मंदिर भी है। सिकर के पास भी उनका एक मंदिर है और कोलकाता में भी उनके कई मंदिर हैं। शिवालिक की पहाड़ियों में सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के पास का एक शक्ति पीठ भी उनका ही मंदिर माना जाता है। कट्टक (ओड़िसा) के पास भी एक शाकम्भरी धाम है। बादामी और बंगलौर में शाकम्भरी देवी के मंदिर हैं। फल-फूलों, वनस्पतियों या कहिये सीधा प्रकृति से जुड़े धर्म के ऐसे उदाहरण कम ही सुनाई देते हैं। ऐसी वजहों से भी धर्म, कहीं ज्यादा बेहतर एक जीवन पद्दति हो जाती है जो किसी भी रिलिजन या मजहब में नहीं होता।


“नव” शब्द का एक अर्थ नया, नूतन, नवीन भी होता है। इस बार जब नवरात्रि बीत रही है तो अपने धर्म को एक नयी नजर से, किसी और के सिखाये मुताबिक नहीं, बल्कि अपनी खुद की नजर से देखिये।✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित
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