दिन की जलन बहुत बाकी है
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
अभी न अस्ताचल जाओ शशि दिन की जलन बहुत बाकी है।
तारे रहे टूटते प्रतिपल
नभ-दीपाली सजे रात -भर,
राही रहे गुजरते अनगिन
पथ अबाध आबाद निरन्तर;
पीछे क्या तू देख रहा मन,आगे चरण बहुत बाकी है।
सूली-ऊपर सेज पिया की
चढ़ी प्रेम-दीवानी मीरा ,
मधु-विद्या के परम बोध में
परिणत गरल-पान की पीड़ा;
मृत्युञ्जय बनने से पहले विष-आहरण बहुत बाकी है।
पदाक्रान्त लक्ष्मण-रेखा है
कनक-कुरंगों की खल माया,
विचर रही धरती पर कुत्सित
सहस्रास्य रावण की छाया;
कथा अनकही अभी राम की,दण्डक-वरण बहुत बाकी है।
काँटों का चिर ताज पहन कर
हम सलीब ढोते आए हैं ,
दुश्मन तो दुश्मन हमने तो
स्वजनों के पत्थर खाए हैं;
सूली के स्वस्तिक पर चढ़अन्तिम स्वस्त्ययन बहुत बाकी है।
आसमान काँपे गुस्से से
सागर रह-रह आँख दिखाए,
आशिक तूफानों का माँझी
अपनी धुन में गाता जाए;
अभी चढ़ी तरणी लहरों पर,आगे तरण बहुत बाकी है।
जपी नाम-माला चातक ने
पर न पसीजे प्राण मेह के,
शुष्ककण्ठ जर्जर तन-पिंजर
बन्धन अक्षत रहे नेह के;
राम दुहाई,मरे बहुत हम,फिर भी मरण बहुत बाकी है।
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