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अपने ही जब बेगाने बनें, छोड़ दो,

अपने ही जब बेगाने बनें, छोड़ दो,

बाढ़ आने का डर, धारा मोड़ दो।
संबंधों को निभाने की चाह उम्र भर,
रिश्ता जो बोझ लगने लगे, तोड़ दो।

कौन क्या कहेगा, मत सोचिए,
राह में काँटे अगर, राह छोड़िए।
हौसला मुश्किलों से लड़ने का हो,
राह के पत्थरों का, रुख़ मोड़िए।

दिवार आँगन में खड़ी, सदा होती रही,
नफ़रतें प्यार में, अंकुरित सदा होती रही।
कौन जाने कब यहाँ, कौन ग़ैर अपना बने,
अपनों के दरमियान, अनबन सदा होती रही।

अ कीर्ति वर्द्धन
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