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उहे हमनी के सुधरिहें

उहे हमनी के सुधरिहें

खेत और खलिहान
हल और जुआठ
सीकड़ न हेंगा
दिखा रहे जो बैठ बैठ कर
बरगद ,पीपर, पाकड़
के छाँव में समाज को ठेंगा
उहे हमनी के सुधरिहें
बैल ना हो जब बधिया
काहे न हो खेती अधिया
नाद ना चरन
दिनभर खुरमुहन
भरपेट भोजन
त काहे न बढ़ी वज़न
उहे हमनी के सुधरिहें
पैर में जेकरा ना लागल कदई
उ का जानस की का होला भदई
सहलन जे ना धूप छांव
भींगलन जे ना बरखा में
जरवले जे ना ढिबरी दियरखा में
जेकरा नइखे सरधा पुरखा में
बोलत बाड़े जे बड़का बड़का बोल
कहल जाला जेकरा के बकलोल
उहे हमनी के सुधरिहें

अरविन्द कुमार पाठक"निष्काम"
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