दीपावली में पटाखे क्यों
मार्कण्डेय शारदेय:
दीपावली में खूब पटाखे चलते हैं।प्रदूषण भी फैलता है, पर कोई गम नहीं।आखिर, हमारे यहाँ ऐसा प्रचलन क्यों हुआ?दरअसल, कन्या की संक्रान्ति में समस्त पितर यमलोक छोड़ सूक्ष्म रूप से अपने वंशजों पर कृपा करने और उनकी श्रद्धा पाने धरती पर आ जाते हैं। जो किसी कारण पितृपक्ष में तर्पण एवं पार्वण श्राद्ध नहीं कर पाते हैं, उनके लिए अन्तिम अवसर कार्तिक अमावस्या (दीपावली) का दिन ही है।यों भी अमावस पितरों की ही तिथि है।अतः दिन में पार्वण कर शाम को लक्ष्मीजी की पूजा तथा पितरों की विदाई में उन्हें यमपुरी का रास्ता दिखाने के लिए उल्का (लुकारी) दिखाने की शास्त्र-सम्मति है-
"तुलासंस्थे सहस्रांशौ प्रदोषे भूत-दर्शयोः।
उल्का-हस्ता नरा कुर्युः पितृणां मार्गदर्शनम्।।"
लुकारी दिखानेवाली परम्परा आज नहीं दिख रही।सम्भवतः उसी का विकसित रूप है फुलझड़ी।सवाल यह है कि अगर यही सच है तो बच्चे और पितृजीवी इस कृत्य में क्यों आ गए? यहाँ भी सम्भावना ही आधार है कि किसी बच्चे ने जिद कर दी और बालहठ के कारण किसी पिता ने उसके हाथ में लुकारी या उससे विकसित फुलझड़ी थमा दी हो।देखा-देखी अगल-बगल के बच्चे भी शामिल होने लगे।फिर, फुलझड़ी के साथ-साथ तरह-तरह के पटाखे भी सम्मिलित होने लग गए।फुलझड़ी की दीवाली में अधिकता शायद उक्त प्राचीनता का संकेतक है।
पितरों के मार्ग-दर्शन से चला यह कृत्य खुशी का प्रतीक बन गया और अब ‘अति’ होने से प्रदूषण का कारण।जहाँ स्वच्छता ही दीपावली का आधार रही, वहीं अस्वच्छता पसार पा रही है।
मेरी खोज बस, यहीं सिमट जाती है।और कोई कारण नजर नहीं आता।
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