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अधूरी कविताऍं

अधूरी कविताऍं

अधूरा मेरा यह जीवन ,
रहीं अधूरी कविताऍं ।
कुछ सोचा न समझा ,
नहीं देखा दाऍं बाऍं ।।
सोचा था बहुत लेकिन ,
कुछ पूरा न हो सका ।
सोचा था जीवन लिखूॅं ,
वह भी न लिख सका ।।
अबतक तो सीखा मैंने ,
सीखने का समय कहाॅं !
मानव को मानव समझूॅं ,
ऐसा मुझमें हय कहाॅं ।।
खेल सो त्रि पन खोया ,
चौथेपन में मैं आ गया ।
ईश्वर की करुणा बरसी ,
जन जन पे मैं छा गया ।।
आह ! मन की व्यथा मैं ,
चाहकर लिख न सका ।
रह गईं अधूरी कविताऍं ,
चाहकर सीख न सका ।।


पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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