पता नही क्यों !
अर्चना कृष्ण श्रीवास्तवदूध में अँगुली डाले
और मुस्कराए,
जाने कितनी दफा,
दादा को अपने जमाने के-
ग्वाले याद आए ।
पुरियाँ खाकर जो पेट में-
दर्द उभरा, ऐंठन आया,
अपने जमाने के कोल्हू-
हजारों बार पलकों में उभर आए ।
घी को चाटने से-
दादाजी घबरा गये ,
आज के शहद खाकर
नल पर आ मितला गये ।
शहर के नदियों के
हालात देखे तो ,
छने पानी को पीकर वो-
सोचे कि कहाँ आ गये ।
ना हल्दी ढंग का,
न मशाला ढंग का ,
ये पीने का रस-
जाने किस रंग का ,
प्यार, आदर और सुलह -
सब समझौते टूटे ,
घर के आँगन से यहाँ-
खुशी के फरिश्ते रूठे ।
मुझे वापस ले चल,
मेरे माँ-बाप गली ,
मेरे बेटे शहरी !
तुझे ये शहर भली !
पतानही क्यों न समझा
जो तेरे साथ आया ,
अपने कुटिया की खुशी यहाँ लाकर लुटाया । ।
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