गाँव की हर गली में बातें बिछी पड़ी हैं,
ऋषि रंजन पाठकगाँव की हर गली में बातें बिछी पड़ी हैं
कदम-कदम पर जैसे कहानियाँ खड़ी हैं।
अगर ठहरे कुछ दिन, तो फुसफुसाहट बढ़ जाएगी,
"लगता है नौकरी गई, अब यही बस जाएगा।"
सुबह की दौड़ भी अब तो सबको खटकती है,
"लगता है शुगर हो गया है, तभी भागता रहता है।"
अगर कम उम्र में कमा लिया कुछ ठीक-ठाक,
तो आधा गाँव बोलेगा,"बाहर दू नंबर के काम करता है ।"
शादी जल्दी हो, तो बातें उभर आती हैं,
"इंटरकास्ट चक्कर था, तभी इतनी जल्दीबाजी है।"
और देर हुई, तो ग्रह-दोष की गूँज सुनो,
"बरम का असर है, वरना बात कब की बन जाती।"
दहेज बिना ब्याह रचाया, तो फिर क्या कहना,
"इज्जत बचाने का मामला था, अरेंज में बदल दिया।"
खेतों की ओर न जाओ, तो आलसी का नाम मिलेगा,
और खेत में काम करो, तो "चर्बी उतर रही है" का तंज मिलेगा।
मोटे होकर गाँव आए, तो किसी की नजर न बचेगी,
कहेंगे, "बीयर पीता है, तभी फूल-सा दिखेगा।"
दुबले आए तो चुप नहीं रहेगा कोई भी,
"लगता है गांजा चिलम का चक्कर है, टीबी का रोगी है यही।"
बाल बढ़ा के जाओ, तो नचनिया का नाम मिलेगा,
हर कदम पर गाँव में कुछ नया बयान मिलेगा।
यहाँ हँसी-ठिठोली में छुपी एक गहरी सच्चाई है,
कभी तंज, तो कभी हौले से फुसफुसाहट की परछाई है।
यही गाँव है, जहाँ सबके पास ओपिनियन का बाजार है,
पर इन बातों के बीच ही तो एक असली संसार है।
जो गाँव से निकलता है, वो इन बातों में नहीं उलझता,
हर ताने, हर फुसफुसाहट को हँसी में बदलता।
इसीलिए जब वो उदास दिखे किसी दिन,
तो समझ लेना कोई गहरी चोट दिल में बसी है।
गाँव की ये छोटी-बड़ी सीख उसे मजबूत बना जाती है,
हर ताने की छाँव में उसे एक नई राह दिखाती है।
गाँव की बातें, ताने, और ये हंसी की रीत,
यही तो बनाते हैं उसे अंदर से सख्त और अजीत।
बाहर की दुनिया में अब ये बात उसे नहीं सताती,
अगर ठहरे कुछ दिन, तो फुसफुसाहट बढ़ जाएगी,
"लगता है नौकरी गई, अब यही बस जाएगा।"
सुबह की दौड़ भी अब तो सबको खटकती है,
"लगता है शुगर हो गया है, तभी भागता रहता है।"
अगर कम उम्र में कमा लिया कुछ ठीक-ठाक,
तो आधा गाँव बोलेगा,"बाहर दू नंबर के काम करता है ।"
शादी जल्दी हो, तो बातें उभर आती हैं,
"इंटरकास्ट चक्कर था, तभी इतनी जल्दीबाजी है।"
और देर हुई, तो ग्रह-दोष की गूँज सुनो,
"बरम का असर है, वरना बात कब की बन जाती।"
दहेज बिना ब्याह रचाया, तो फिर क्या कहना,
"इज्जत बचाने का मामला था, अरेंज में बदल दिया।"
खेतों की ओर न जाओ, तो आलसी का नाम मिलेगा,
और खेत में काम करो, तो "चर्बी उतर रही है" का तंज मिलेगा।
मोटे होकर गाँव आए, तो किसी की नजर न बचेगी,
कहेंगे, "बीयर पीता है, तभी फूल-सा दिखेगा।"
दुबले आए तो चुप नहीं रहेगा कोई भी,
"लगता है गांजा चिलम का चक्कर है, टीबी का रोगी है यही।"
बाल बढ़ा के जाओ, तो नचनिया का नाम मिलेगा,
हर कदम पर गाँव में कुछ नया बयान मिलेगा।
यहाँ हँसी-ठिठोली में छुपी एक गहरी सच्चाई है,
कभी तंज, तो कभी हौले से फुसफुसाहट की परछाई है।
यही गाँव है, जहाँ सबके पास ओपिनियन का बाजार है,
पर इन बातों के बीच ही तो एक असली संसार है।
जो गाँव से निकलता है, वो इन बातों में नहीं उलझता,
हर ताने, हर फुसफुसाहट को हँसी में बदलता।
इसीलिए जब वो उदास दिखे किसी दिन,
तो समझ लेना कोई गहरी चोट दिल में बसी है।
गाँव की ये छोटी-बड़ी सीख उसे मजबूत बना जाती है,
हर ताने की छाँव में उसे एक नई राह दिखाती है।
गाँव की बातें, ताने, और ये हंसी की रीत,
यही तो बनाते हैं उसे अंदर से सख्त और अजीत।
बाहर की दुनिया में अब ये बात उसे नहीं सताती,
गाँव की दी हुई मोटी चमड़ी उसे हर दर्द से बचाती।
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